करके जाने वह श्रुतज्ञानका उपयोग है। लेकिन उन दोनोंमें जानपना-ज्ञान, अखण्ड ज्ञायक जानपना है वह मैं हूँ। मति-श्रुतके दो भेद पडे वह भेद मूल स्वरूपमें तो नहीं है। वह तो क्षयोपशमज्ञानके भेद हैं। उसमें उपयोग जो हो रहा है, उस उपयोगसे आत्माको एक शाश्वत ग्रहण करनेका है। अखण्ड ज्ञायक ग्रहण करता है। ज्ञायक तो अखण्ड है। उसमें मति-श्रुतके दो भेद नहीं पडते। वह तो क्षयोपशमज्ञानके भेद है।
अंतर तरफ जाय तो सामान्य प्रकारसे मति ग्रहण करता है कि मैं यह ज्ञानस्वरूप है वह मैं हूँ। वह ज्ञानलक्षण कैसा है? ज्ञानका विशेष भेद करके जाने वह श्रुतज्ञानका उपयोग है। मति-श्रुतके भेद तो बीचमें आते हैं। परन्तु ग्रहण एकको करना है कि जो अखण्ड ज्ञायक शाश्वत अस्तित्व स्वरूप है, ज्ञायक जिसका अस्तित्व है, ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण होता है। ज्ञायक अस्तित्व असाधारणरूप है। उसमें अनन्त गुण हैं, परन्तु ये ज्ञायकता है वह असाधारण लक्षण है। उस ज्ञायकतासे ग्रहण होता है। मति- श्रुतका उपयोग बीचमें आते हैं, मति और श्रुत बीचमें आता है, परन्तु ग्रहण एकको करना है। दो भेद नहीं, एकको ग्रहण करनेका है।
मुमुक्षुः- शास्त्रमें ऐसा आता है, वह वास्तवमें तो परप्रकाशक है। वह आत्माका लक्षण नहीं है। उस ज्ञानका अभाव होकर अतीन्द्रिय ज्ञान अन्दर आत्माको पकडता हुआ ज्ञान, वह वास्तवमें लक्षण है। ये जो अभी जानपना हो रहा है उसमें तो परप्रकाशकपना ही ख्यालमें आता है। ये जानता है, यह जानता है, यह ज्ञात होता है।
समाधानः- बाहर उपयोग है न। बाहर उपयोग होनेसे वह मति-श्रुतका उपयोग इन्द्रियोंकी ओर मुडा है। मन तरफ, इन्द्रियोंकी ओर उपयोग (है)। परन्तु उसमें जो जाननेवाला है वह मैं हूँ। ऐसे लक्ष्य अपनी ओर करना है। उसमें स्वयंको छोडकर स्वयं कहीं अकेला भिन्न पडा रहता है और यह ज्ञान कहीं ओर पडा रहता है, ऐसा नहीं है। उसका उपयोग बाह्य हो गया है इसलिये परप्रकाशक ज्ञेयोंकी ओर हो गया है। स्वयं ज्ञायककी ओर जाता नहीं। उसमें वह जाननेवाला है, ज्ञेयोंको ग्रहण नहीं करके मैं जाननेवाला हूँ, ऐसे अपनी ओर मुडे तो उसमें ज्ञान ग्रहण होता है। और ज्ञेयोंकी ओर लक्ष्य जाय तो ज्ञेय ग्रहण होते हैं। उपयोग बाहर जाता है तो बाहरको ग्रहण करे तो बाह्य ज्ञेय ग्रहण होते हैं। अंतर दृष्टि करे तो अपना ज्ञान ग्रहण होता है।
जानपना है वह जानपना मात्र नहीं, परन्तु वह जाननेवाला जो पूरा है वह मैं हूँ। क्षयोपशम ज्ञानके भेद, शास्त्रमें आता है न कि बादलके पटलमें हीनाधिकतारूप जो किरण दिखाई देते हैं, वह किरण कहाँ-से आये हैं? किरणोंका संचार वह मूल वस्तु है। अतः एक भेद पर खडे नहीं रहकरके उसका मूल कहाँ है, उस मूलको ग्रहण करना है। क्षयोपशमज्ञानके भेद हीनाधिकतारूप दिखे वह हीनाधिकता जितना ही