४ मैं नहीं हूँ, परन्तु उसका मूल कहाँ है? उसका स्वभाव मूल वस्तु क्या है? उसे ग्रहण करना है। वह उसे आधार देनेवाला है, तोडनेवाला नहीं है। शास्त्रमें आता है कि उसके किरण जो बादलके पटलमें जो सूर्यके किरण दिखते हैं, उस किरणके पीछे पूरा सूर्य है उसे ग्रहण करना है। भेदको ग्रहण नहीं करके अखण्डको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- वर्तमान ज्ञानउपयोग, उसे जानते हुए यह ज्ञान इसे प्रकाशता है, इसे प्रकाशता है, ऐसे लक्ष्यमें नहीं लेते हुए, ज्ञानत्व लक्ष्यमें लेकर उस परसे त्रिकालीका लक्ष्य करना?
समाधानः- त्रिकालीका लक्ष्य (करना)। जानपनाका मूल कहाँ है? उसका मूल अस्तित्व ग्रहण करना। ये ज्ञेय ज्ञात हुए, ये ज्ञात हुआ, ये ज्ञात हुआ इसलिये मैं, ऐसे नहीं, परन्तु जानपना मूल सामान्य जानपना। और उस जानपनेका आश्रय लेकर उसका मूल अस्तित्व कहाँ है, उस मूलको ग्रहण करना है।
मुमुक्षुः- ऐसा सामान्य जानपना-जानपना कहाँसे आ रहा है? वह जो त्रिकाली अस्तित्व है..
समाधानः- त्रिकाली अस्तित्वको ग्रहण करना है। .. अखण्डको ग्रहण करना है। दूसरेको प्रकाशता है ऐसा नहीं देखकरके, उस किरणोंका आश्रय लेनेवाली मूल वस्तु कौन है? जानपनेका आश्रय मूल अस्तित्व उसका कहाँसे है, उसे ग्रहण करना है। मूल अस्तित्व कहाँ है, वह ग्रहण करना है।
मुमुक्षुः- ये जानपना.. जानपना.. जानपना कहाँसे हो रहा है, उस पर लक्ष्य..
समाधानः- जानपनेका मूल अस्तित्व कहाँ है, अखण्ड अस्तित्वको ग्रहण करना है।
मुमुक्षुः- २९७ गाथामें प्रज्ञासे किस प्रकार ग्रहण करना, उसे समझाते हुए ... मैं मेरे द्वारा, मुझे मेरे द्वारा, मेरे लिये, मेरेमें, मेरेसे और मेरे आधारसे मुझे जानता हूँ। प्रयोजनकी सिद्धिमें वह कुछ उपयोगी है?
समाधानः- उसकी साधकदशा अभी शुद्ध पर्याय प्रगट नहीं हुयी है, इसलिये बीचमें भेद आते तो हैं। मूल तो अस्तित्व जो है वह है। वह तो जो अखण्ड अनादिअनन्त वस्तु तो जो है सो है। वह कोई छूट नहीं गयी या दूसरेमें गयी नहीं या दूसरेमेंसे आती नहीं। ज्ञायकका अस्तित्व तो जो है वह है। लेकिन वह स्वयंको ज्ञानमें प्रगटपने ग्रहण नहीं हुआ है। इसलिये उसमें बीचमें मैं, मेरे लिये, मुझे ही ग्रहण करता हूँ, इसलिये परका आश्रय नहीं है। ऐसे स्वयं अपनी स्वाधीनता पर दृष्टि करता है, उसमें बीचमें आता है।
उसकी दृष्टि ऐसे भेद पर नहीं है। दृष्टि तो एक अखण्डको करनेकी है। परन्तु उसका प्रयोजन, किसके लिये, उसका साधन कौन ऐसे अपनी स्वतंत्रताके लिये बीचमें