६ उसके ज्ञानमें, जहाँ सम्यग्दृष्टि होती है, वहाँ सब सहज आ जाता है। ज्ञानके प्रकार हैं, इसलिये उसमें बीचमें इस प्रकारका जानना आता है।
पहले ज्ञेयसे छूटा, फिर अन्दर स्वतंत्र हुआ, फिर स्वभाव पर जहाँ दृष्टि हुयी, वहाँ उसे दृष्टि, ज्ञान दोनों साथमें होते हैं। उसमें उसे परका भेद, शरीरसे भिन्न, विभावसे भिन्न, साथमें आ जाता है। अपनेसे स्वयं कैसे है, गुणभेद, पर्यायभेद वह सब उसे ज्ञानमें साथमें आ जाता है।
समाधानः- .. अंतरमें गुरुदेवने जो कहा है, वह सब स्मरण करते रहना। उसकी लगन लगानी, उसके विचार करना, वांचन करना। विचार, वांचन, उसकी लगन, उसे बार-बार याद करते रहना-स्मरण करते रहना, विचार करते रहना। तत्त्व सम्बन्धित सब विचार करना। बाह्य प्रवृत्तिमें स्वयं एकमेक न हो जाय उसके लिये अपनी ओरकी रुचि बढाते रहना। करनेका तो अंतरमें है वही सत्य है।
मुमुक्षुः- कोई जगह अपने करना न चाहे तो भी सहज हो जाता है।
समाधानः- प्रवृत्तिकी गठरीयाँ होती है, मुंबईमें तो। तो भी अंतरमें स्वयं अपनी रुचि रखे, चाहे जैसे बाह्य संयोग हो तो भी।
मुमुक्षुः- रुचि बढानेके लिये क्या करना? समाधानः- कारणका कारण क्या? स्वयं तैयार होना। रुचि बढानेके लिये स्वयं तैयार होना। रुचि बढानेके लिये सत्संग, सत्पुरुषकी वाणी आदि होता है। जहाँ सत्संग मिले, सत्पुरुषकी वाणी मिले ऐसे सब साधनोंमें स्वयं रहे। रुचि बढानेके लिये अपना उपादान तैयार करना। उसका कारण स्वयं ही है। कोई करवाता नहीं है, स्वयं करे तो होता है। उसके बाह्य कारणोेंमें सत्पुरुषकी वाणी, सत्पुरुष साक्षात हो या सत्संग आदि सब बाह्य कारणोंमें (है)। अंतरमें स्वयं रुचि बढानेमें कारण है। स्वयं अपनेसे बढानी।