અનુભવ પહેલા કેવી દશા હોય છે? 0 Play अनुभव पहेला केवी दशा होय छे? 0 Play
સાધકને તો વિભાવ આકુળતારૂપ લાગે છે તો શું અનુભવ પહેલા પણ મંદ કષાયમાં આકુળતા લાગે? 4:15 Play साधकने तो विभाव आकुळतारूप लागे छे तो शुं अनुभव पहेला पण मंद कषायमां आकुळता लागे? 4:15 Play
જ્ઞાની ધર્માત્મા ભગવાનનું સુખ કેવું હશે તે નક્કી કરી શકે? 5:50 Play ज्ञानी धर्मात्मा भगवाननुं सुख केवुं हशे ते नक्की करी शके? 5:50 Play
સ્વભાવ અને વિભાવ વિષે પ્રશ્ન છે (પ્રશ્ન સમજાતો નથી) 7:15 Play स्वभाव अने विभाव विषे प्रश्न छे (प्रश्न समजातो नथी) 7:15 Play
સાધકભાવ પણ વ્યવહાર છે. દ્રષ્ટિ તો અખંડ દ્રવ્ય ઉપર રાખવાની છે તે વિષે. 11:40 Play साधकभाव पण व्यवहार छे. द्रष्टि तो अखंड द्रव्य उपर राखवानी छे ते विषे. 11:40 Play
જાણવાની પર્યાયને કરવી નથી તેનો પણ શું જાણનાર છે ? 15:10 Play जाणवानी पर्यायने करवी नथी तेनो पण शुं जाणनार छे ? 15:10 Play
આવું સરસ તત્ત્વ મળ્યું. અમારાથી થઈ શકે તેટલો પ્રયત્ન-ચિંતન-મનન કરીએ પણ છીએ પણ વ્યવહાર- જીવનમાં ખોટું બોલવાના ભાવ, માયાચારીના ભાવ કે જેનાથી સામેના જીવને દુઃખ થશે એવી દરકારનો ભાવ ન રહેતા હોય તો તે આત્મસાધનામાં નડતરરૂપ થાય કે પાત્રતામાં ? 16:50 Play आवुं सरस तत्त्व मळ्युं. अमाराथी थई शके तेटलो प्रयत्न-चिंतन-मनन करीए पण छीए पण व्यवहार- जीवनमां खोटुं बोलवाना भाव, मायाचारीना भाव के जेनाथी सामेना जीवने दुःख थशे एवी दरकारनो भाव न रहेता होय तो ते आत्मसाधनामां नडतररूप थाय के पात्रतामां ? 16:50 Play
..સિદ્ધ થઈ ગયા પછી ધર્માસ્તિકાય કેવી રીતે મદદ કરે?.... 18:10 Play ..सिद्ध थई गया पछी धर्मास्तिकाय केवी रीते मदद करे?.... 18:10 Play
ભાવલિંગી મુનિએ કમંડલમાંથી કોઈને પાણી આપવું જોઈએ કે નહીં (પ્રશ્નનો સાર) 19:05 Play भावलिंगी मुनिए कमंडलमांथी कोईने पाणी आपवुं जोईए के नहीं (प्रश्ननो सार) 19:05 Play
समाधानः- अनुभूतिके पहले तो उसकी उस जातकी लगन, उस प्रकारकी चटपटी हो, लगन हो, ज्ञायकको ग्रहण करने ओरकी उसकी परिणति हो। यह ज्ञायक ही है, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसा ज्ञायक ओरका निश्चय दृढ करना चाहिये। भेदज्ञानकी परिणति दृढ करनी चाहिये। ये सब मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य हूँ। अपना स्वभाव अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। स्वभावको ग्रहण करे, बारंबार-बारंबार चैतन्यकी धून लगे, चैतन्यके अलावा कहीं रुचे नहीं। एक चैतन्यमय जीवन कैसे हो जाय, ऐसी अपनी दृढ परिणति उस ओरकी होनी चाहिये। चैतन्यकी ही धून लगनी चाहिये। जागते-सोते चैतन्य-चैतन्य ओरकी परिणति ही जागृत रहनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- विभावकी ओर दुःख और स्वभावका ग्रहण, दोनों साथमें (होते हैं)। स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न (होना चाहिये)। स्वभावमें ही सर्वस्व है, ऐसा निश्चय। स्वभाव ग्रहण करनेकी उसकी प्रतीति जोरदार होनी चाहिये और विभावकी ओर दुःख लगे, दोनों साथमें होते हैं।
मुमुक्षुः- सभी आत्माओंको इसी प्रकारकी विधि, विभाव परिणतमें दुःख लगेऔर स्वभाव ओर मुडे?
समाधानः- स्वभाव ग्रहण करनेकी परिणति। निज स्वभाव ओरका निश्चय औरविभावमें दुःख लगे। विभाव तो आकुलतारूप ही है, स्वयंको आकुलता लगती नहीं है। उसका स्वरूप पहचाने कि ये तो आकुलता ही है। स्वभाव है वही शान्तिरूप है। ऐसा निश्चय स्वयंको होना चाहिये। विभाव ओर उसकी परिणति टिक न सके, अंतरकी ओर अंतरमें ही सुख है। विभाव होता है, परन्तु उसकी एकत्वबुद्धिको तोडता जाता है, स्वभावकी ओर मुडता जाता है।
मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद आने पूर्व उसे शुभभावरूप परिणतिमें उसेआकुलताका वेदन होता है?
समाधानः- शुभभावकी परिणति होती तो है, परन्तु यह मेरा स्वभाव नहीं है,