Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 192.

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ट्रेक-१९२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- अनुभूतिके पहले कैसे...?

समाधानः- अनुभूतिके पहले तो उसकी उस जातकी लगन, उस प्रकारकी चटपटी हो, लगन हो, ज्ञायकको ग्रहण करने ओरकी उसकी परिणति हो। यह ज्ञायक ही है, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसा ज्ञायक ओरका निश्चय दृढ करना चाहिये। भेदज्ञानकी परिणति दृढ करनी चाहिये। ये सब मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्य हूँ। अपना स्वभाव अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। स्वभावको ग्रहण करे, बारंबार-बारंबार चैतन्यकी धून लगे, चैतन्यके अलावा कहीं रुचे नहीं। एक चैतन्यमय जीवन कैसे हो जाय, ऐसी अपनी दृढ परिणति उस ओरकी होनी चाहिये। चैतन्यकी ही धून लगनी चाहिये। जागते-सोते चैतन्य-चैतन्य ओरकी परिणति ही जागृत रहनी चाहिये।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- विभावकी ओर दुःख और स्वभावका ग्रहण, दोनों साथमें (होते हैं)। स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न (होना चाहिये)। स्वभावमें ही सर्वस्व है, ऐसा निश्चय। स्वभाव ग्रहण करनेकी उसकी प्रतीति जोरदार होनी चाहिये और विभावकी ओर दुःख लगे, दोनों साथमें होते हैं।

मुमुक्षुः- सभी आत्माओंको इसी प्रकारकी विधि, विभाव परिणतमें दुःख लगे और स्वभाव ओर मुडे?

समाधानः- स्वभाव ग्रहण करनेकी परिणति। निज स्वभाव ओरका निश्चय और विभावमें दुःख लगे। विभाव तो आकुलतारूप ही है, स्वयंको आकुलता लगती नहीं है। उसका स्वरूप पहचाने कि ये तो आकुलता ही है। स्वभाव है वही शान्तिरूप है। ऐसा निश्चय स्वयंको होना चाहिये। विभाव ओर उसकी परिणति टिक न सके, अंतरकी ओर अंतरमें ही सुख है। विभाव होता है, परन्तु उसकी एकत्वबुद्धिको तोडता जाता है, स्वभावकी ओर मुडता जाता है।

मुमुक्षुः- अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद आने पूर्व उसे शुभभावरूप परिणतिमें उसे आकुलताका वेदन होता है?

समाधानः- शुभभावकी परिणति होती तो है, परन्तु यह मेरा स्वभाव नहीं है,