२४ जितना यह ज्ञान है। उस ज्ञानमात्र आत्माका निश्चय कर कि ज्ञानमात्र आत्मामें सबकुछ है। उसीमें रुचि कर। बाहरमें कहीं नहीं है। सब आकुलतास्वरूप-दुःखस्वरूप है। ज्ञानमात्र आत्मामें सब कैसे आ जाता है, उसीकी रुचि कर, उसकी श्रद्धा कर। उसीमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, तो उसमेंसे तुझे मार्ग प्रगट होगा।
अंतरमें जो स्वानुभूति होती है उसका पहले वेदन नहीं होता है, पहले उसका निश्चय होता है। इसलिये यह जो ज्ञानमात्र आत्मा है, उसका निश्चय कर। उतना ही सत्य कल्याण है कि जितना यह ज्ञान है। उतना ही परमार्थस्वरूप आत्मा है कि जितना यह ज्ञान है। वह ज्ञान अर्थात पूरा ज्ञायक समझ लेना। किसीको ऐसा हो कि ज्ञानमें क्या रुचि, क्या प्रीति, क्या संतोष करना? ज्ञानमें सब आ गया? ज्ञान अर्थात ज्ञायक है। ज्ञायकमें अनन्त गुण हैं। ज्ञायक पर दृष्टि कर, उसमें संतोष कर, उसमें तृप्त हो, तो उसमेंसे वचनसे अगोचर ऐसा कोई सुख तुझे प्राप्त होगा। उसमें अनन्त गुण भरे हैं।
तू स्व-परका विभाग कर कि ये जो विभावका भाग है, वह ज्ञान-ओरका नहीं है। जो शुभाशुभ दोनों भाग हैं, वह सब भाग विभाव-ओरके हैैं। शुभ बीचमें आये बिना नहीं रहता। शुभ बीचमें आये, लेकिन वह सब भाग पर-ओरका है। निज स्वभावका भाग नहीं है। इसलिये तू स्वभावको पहचान ले कि ये जितना भाग ज्ञान-ओरका है, जो ज्ञायक है वह भाग चैतन्यका है और ये जो विभाव है, वह सब पर-ओरका है। उसका विभाग कर। ज्ञायक स्वरूप आत्मा जो अखण्ड शाश्वत अनादिअनन्त आत्मा है। शाश्वत आत्माकी दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर, उसमें लीनता (कर)। उसका विभाग करके चैतन्यकी ओर परिणतिको झुका। तो उसमें जो है वह प्रगट होगा।
उसमें ज्ञान भरा है, उसमें आनन्द भरा है, उसमें अनन्त गुण भरे हैं। वह ज्ञान है वह खाली नहीं है, परन्तु लबालब भरा है। वह ज्ञान शून्य है, परन्तु लबालब है। इसलिये तू ज्ञानमात्र आत्माका ही विश्वास कर, उसीका निश्चय कर कि उसमें ही सब है, उसीमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो। और ऐसा निश्चय करके यदि तू अंतरमें जायगा तो तुझे उसीमें तृप्ति होगी, उसमें ही संतोष होगा। तुझे बाहर जानेका मन नहीं होगा। उसी क्षण विकल्प टूटकर तत्क्षण तेरे आत्माका अनुभव तुजे होगा। इसलिये तू उसका निश्चय कर। सदाके लिये उसीकी प्रीति कर और उसीका संतोष कर और उसीमें रुचि कर। बाहरकी सब रुचि छोड दे। सब विभाव-ओरकी रुचि छोडकर अंतर स्वभावकी रुचि कर।
वह ज्ञानमात्र जो दिखता है, वह सूखा नहीं है, लबालब भरा है। इसलिये ज्ञानमात्र आत्मा-ज्ञायकमात्र आत्माका निश्चय कर। निर्विकल्प स्वरूप आत्मा है। ज्ञायककी उग्र