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धारा कर, ज्ञाताधारा-मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ। मैं एक अनुपम तत्त्व हूँ। उस ओर बार-बार परिणतिको झुकाता रह, वह तत्कल न हो तो उसकी भावना कर, उसकी लगन लगा और उसके स्वभावको पहचाननेका प्रयत्न कर। स्वभाव अलग है और यह विभाव भिन्न है।
जैसे स्फटिक रत्न स्वभावसे निर्मल है, ऐसे आत्मा निर्मल स्वभाव है। ये सब विभाव दिखता है वह सब पर-निमित्तसे है, अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। परन्तु वह निज स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न हो। तू अंतरमें जायगा तो अंतरमें अनन्त गुण भरे हैं, वह सब तुझे (प्रगट होंगे)। स्वभावमेंसे ही स्वभाव आयेगा, विभावमेंसे स्वभाव नहीं आयेगा। इसलिये स्वभाव-ओर दृष्टि कर, उसीमेंसे सब प्रगट होगा। उसीमें संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, उसीमें-से सब प्रगट होगा। तुझे अंतरमें-से ऐसा प्रगट होगा कि तुझे स्वयंको ही ऐसा लगेगा कि यही मेरा स्वभाव है और यही मेरा आनन्द है, अन्य कुछ नहीं है। निर्विकल्प तत्त्वस्वरूप मैं स्वयं ही आत्मा हूँ। उसीमें-से तुझे स्वयंको ऐसी प्रतीति-विश्वास, अनुपम सुख दृष्टिगोचर होगा। और उसमें-से तुझे साधना बढते- बढते उसमें ही तुझे केवलज्ञान प्रगट होगा।
सुखका यह एक ही उपाय है। उसके लिये अनेक प्रकारसे उसका द्रव्य क्या, उसके गुण क्या, उसकी पर्यायें क्या? उसका विचारके निश्चय करे। पहले यथार्थ निश्चय कर और बादमें उसका प्रयत्न (कर)। ऐसा मार्ग है और वह मार्ग गुरुदेवने प्रगटरूपसे बताया है और वही करना है।
जीवनमें उसकी लगन, उसका पुरुषार्थ, उसके लिये एक आत्मा, ज्ञायकस्वभाव आत्मा मुझे चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक ही चाहिये। उसके ध्येयसे उसे सब करना होता है। बाहरमें श्रुतका चिंतवन, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। मुझे एक आत्मा-ज्ञायक आत्मा चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। उसीमें सब है। ज्ञानस्वरूप आत्मामें ही सब है। वही सर्वस्व है।
मुमुक्षुः- ९५वीं मंगलकारी जन्म जयंति मनानेके लिये, आपकी आज्ञा और आशीर्वाद लेने आये हैैं। आप हम बालकोंको आप आशीर्वाद देकर ... आभारी करें। हम तो आत्म-प्राप्ति करें ऐसे आशिष हमें अधिक-अधिक उपकारी है।
समाधानः- गुरुदेवके लिये तो जितना करें उतना कम है। गुरुदेवका तो महान उपकार है। गुरुदेवने तो .. ये जन्म-मरण मिटकर.. आत्माका स्वरूप अपूर्व बताया। गुरुदेवके लिये जितना करें उतना कम है।
गुरुदेव तो नित्य सोनगढमें ही (विराजते थे)। सोनगढका कण-कण पावन किया है। महापुरुष जहाँ विचरे, जहाँ रहते हों वह भूमि भी तीर्थस्वरूप है। शास्त्रमें आता