२६ है, जो तीर्थ, जिनेन्द्र देव विचरे हों, मुनिराज विचरे हों, जहाँ रहते हों वह सब भूमि पावन तीर्थ कहलाती है। वैसे गुरुदेव यहाँ कितने ही वर्ष नित्य बसे। और वाणी बरसायी। मुनिराज तो जंगलमें होते हैं। गुरुदेवने तो मुमुक्षु भक्तोंके बीच रहकर वाणी बरसायी। तीन वक्त उनकी वाणी बरसती रही। जैसे साक्षात तीर्थंकर भगवान समवसरणमें वाणी बरसाये। उसी तरह नियमरूपसे गुरुदेवकी वाणी इस सोनगढमें बरसती थी। नियमरूपसे बरसती थी।
गुरुदेव कोई अपूर्व... तीर्थंकरका द्रव्य अपूर्व! यहाँ मानों सबको तारनेके लिये आये हों, वैसे यहाँ भरतक्षेत्रमें पधारे। उनके लिये जितना करें उतना कम है। यहाँ नित्य विराजे। ये तीर्थस्वरूप भूमि है। इसलिये जितना गुरुदेवका करें उतना कम है। उनका उपकार कोई अनुपम है।
मुमुक्षुः- उनकी जन्म जयंति ही सबसे अधिक यहाँ शोभा देती है।
समाधानः- गुरुदेवकी भूमि यह तीर्थस्वरूप भूमि है। गुरुदेव जहाँ विराजे वह सर्वोत्कृष्ट है। वह क्षेत्र मंगल, वह काल मंगल, वह भाव मंगल। गुरुदेव कहते थे, सम्मेदशिखरकी यात्रा करते समय, तीर्थंकर भगवानका द्रव्य और जहाँ विचरे वह क्षेत्र मंगल, जिस कालमें उन्हें और निर्वाण-प्राप्ति हुयी वह काल मंगल, जो भाव प्रगट किये वह भाव मंगल हैं। वैसे यहाँ भी गुरुदेव विराजे, उन्होंने साधना की, वह मंगलस्वरूप ही है।
मुमुक्षुः- पूरा सोनगढ मंगलस्वरूप हो गया।
समाधानः- गुरुदेवके प्रतापसे सब मंगलस्वरूप (है)। गुरुदेव स्वयं ही मंगलमूर्ति थे। यहाँ विराजकर पूरे हिन्दुस्तानमें उन्होंने विहार करके सब जीवोंको यह मार्ग बताया और हजारों जीवोंको यह दृष्टि बतायी है। अंतर दृष्टिका मार्ग बताया है।
चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।