समाधानः- ... दो तत्त्व भिन्न हैं। चैतन्यतत्त्व भिन्न है और यह जड तत्त्व भिन्न है। दो द्रव्य ही भिन्न हैैं। द्रव्यको भिन्न-भिन्न जाने, उसका भेदज्ञान करे तो अतरमें उसे जो एकत्वबुद्धि है, उस कारणसे उसे जो आकुलता होती है, वह आकुलता छूट जाय। आकुलतास्वरूप आत्मा है ही नहीं। आकुलता भिन्न और आत्मा भिन्न है। आत्मा तो शान्तिस्वरूप है। ऐसे उसका भेदज्ञान कर।
मैं भिन्न चैतन्य ज्ञायक हूँ। शान्ति मेरेमें है, बाहर कहीं नहीं है। शान्ति, आनन्द, ज्ञान आदि अनन्त गुणोंसे भरपूर आत्मा है, उसका भेदज्ञान कर। ज्ञायककी धून लगाकर ज्ञाताधाराकी उग्रता कर। उसीमें लीनता, उसीमें प्रयत्न। अनन्त कालसे जो यह एकत्वबुद्धि है इसलिये यह बन्ध और जन्म-मरण है। एकत्वबुद्धि टूटकर, अंतरमें भेदज्ञान करके चैतन्यको भिन्न जानना, वही जीवनका कर्तव्य है। और वही एक ध्येय रखने जैसा है। ज्ञायक आत्मा कैसे पहचानमें आये, वही करने जैसा है।
उस ज्ञातामें सब भरा है। ज्ञायक सहज स्वभाव है। वह स्वभाव उसे कहीं बाहर लेने नहीं जाना पडता। बाहरसे लेने जाता है वह अपनेमें कुछ नहीं आता। वह तो परवस्तु है। परवस्तुमें-से कुछ नहीं आता। परमें शान्ति नहीं है, परमें आनन्द नहीं है, परमें ज्ञान नहीं है। जो है, वह निज स्वरूपमें है। उस स्वरूपमें-से प्रगट हो ऐसा है। परकी कर्ताबुद्धि-मानों मैं परको कर सकता हूँ, पर मेरा कर सकता है, मैं उसमें फेरफार कर सकता हूँ, वह सब भ्रमणाबुद्धि है। परका तो जैसा होना होता है वैसे होता है। जो वेदना आनी है वह आती है। वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है।
स्वयं निज स्वभावका कर सकता है। स्वयं ज्ञान, आनन्द आदि अनन्त गुणोंसे भरपूर आत्मा है, उसे प्रगट कर सकता है। उसे प्रगट करनेमें देव-गुरु-शास्त्र निमित्त होते हैं। परन्तु वह जागृत, स्वयं उपादान तैयार हो तो हो। अनन्त कालसे जीव आत्माको पहचानता नहीं है। ऐसेमें कोई गुरु अथवा देव मिले, उनकी देशना मिले उसे स्वयं ग्रहण करे और अंतरमें-से स्वयं पुरुषार्थ करे तो वह प्रगट हो सके ऐसा है।
जीवनमें एक ज्ञायक आत्मा वही ग्रहण करने जैसा है। गुरुदेव तो वहाँ तक कहते थे कि अनेक जातके जो गुणभेद पडते हैं, पाँच ज्ञानके भेद पडे, पाँच भावोंके भेद