२८ पडे, एक पारिणामिकभावस्वरूप मैं हूँ, एक ज्ञानस्वरूप मैं हूँ। भेद पर दृष्टि मत कर। उन सब भेदोंको गौण कर। ज्ञानमें तू सब जान। परन्तु एक अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर और उसमें लीनता कर। चैतन्यमें शान्ति, आनन्द सब भरा है। और वही प्रगट करने जैसा है। वह कैसे प्रगट हो? तदर्थ उसका विचार, वांचन, उसकी लगन, उसका अनेक जातका श्रुतका चिंतवन आदि करके अन्दर यथार्थ निश्चय करके कि मैं भिन्न ही हूँ और ये सब परपदार्थ हैं। विभावभाव होते हैं वह भी निज स्वभाव नहीं है। पर्याय भी प्रतिक्षण बदलती है। शाश्वत स्वरूप आत्मा अखण्ड द्रव्य है उस पर दृष्टि करने जैसी है। पर्याय, गुण ज्ञानमें जाने। परन्तु दृष्टि तो एक आत्मा पर करने जैसी है और वही जीवनका (कर्तव्य), वही ध्येय होना चाहिये। वही मुक्तिका मार्ग। गुरुदेवने परम उपकार किया है। और वही सारभूत आत्मा है, उसे ग्रहण करने जैसा है।
मुमुक्षुः- माताजी! आपकी मुद्र देखते हैं, आपकी वाणी सुनते हैं तब तो ऐसा लगता है, मानों आत्मा हमें प्राप्त हो जाता हो, ऐसा..
समाधानः- पुरुषार्थ स्वयंको करना है। उसकी रुचि हो, उसकी महिमा हो परन्तु पुरुषार्थ तो उसको स्वयंको करना है।
मुमुक्षुः- क्षेत्रसे इतने दूर आये हैं, फिर भी सभी मुमुक्षुओंको इसकी मुख्यता तो हमें देखने मिलती है।
समाधानः- गुरुदेवने जो यह मार्ग बताया है, वही करना है।
मुमुक्षुः- यह बात ही कहाँ थी।
समाधानः- यह बात ही कहाँ थी। मुुमुक्षुः- जिस संप्रदायमें हो, वहाँ धर्म माने, इसमें धर्म माने, उसमें धर्म माने।
समाधानः- बाहरसे धर्म माना था।
मुमुक्षुः- एक बार आप कहते थे, हमें तो जो भी मिला है, सोनगढसे गुरुदेवसे ही प्राप्त हुआ है, कहीं औरसे हमें नहीं मिला है।
समाधानः- गुरुदेवने ही सबको दिया है। और गुरुदेवने यहाँ साधना की तो यह क्षेत्र... शास्त्रमें आता है न? क्षेत्र भी मंगल है।
मुमुक्षुः- यह भूमि भी मंगल है।
समाधानः- हाँ, मंगल है। तीर्थ है। वह भूमि तीर्थ कहलाती है। गुरुदेव तो सर्वोत्कृष्ट थे। करना तो वही है, गुरुदेवने कहा वह। ये शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, सब गुरुदेवने बताया है। दो द्रव्य भिन्न हैं। विभावस्वभावसे भी भिन्न पडनेका गुरुदेवने कहा है।