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... मुनिदशा है। स्वयंको ही अन्दर बल वर्तता है, उस बलमेंसे बोलेत हैं। वस्तु स्वरूप जैसा है वैसा बोलते हैं, द्रव्यदृष्टिसे।
मुमुक्षुः- साधनाको अधिक वेग मिले, द्रव्यदृष्टिका जोर हो तो साधनाको अधिक वेग मिले ऐसा है?
समाधानः- बोलनेसे वेग मिले ऐसा अर्थ नहीं है। आचार्यको भावना आयी है इसलिये बोलते हैं। बोलनेसे वेग (नहीं आता)। वेग तो अन्दर परिणतिमें है।
मुमुक्षुः- परिणतिमें उतना जोर हो तो...
समाधानः- मुक्तिके मार्ग वालेको द्रव्यदृष्टिका बल होता है, उसका जोर होता है। लेकिन वह जोर ऐसा नहीं होता कि उस जोरका वैसा अतिरेक या पर्यायका निषेध हो जाये। ऐसा बल नहीं होता। बल होता है। द्रव्यदृष्टिके बलमें आगे बढता है, लेकिन वह बल ऐसा बल नहीं होता। भाषामें कुछ भी बोले, मैं किस नयसे जानूँ? कहीं भेद नहीं दिखाई देता, ऐसा कहे, लेकिन उसकी परिणतिमें तो उसका बल जो यथास्थित मुक्तिके मार्गमें जैसा होता है वैसा ही रहता है।
मुमुक्षुः- कथनमें तो ऐसा लगे कि मानो एकान्त (हो गया)।
समाधानः- हाँ, एकान्त जैसा लगे। मुक्तिके मार्गमें बल यथास्थित जैसा है वैसा लेते हैं। ऐसी कोई भावना आये तो ऐसा बोले। कोई ऐसे प्रश्न करने वाले हो, ऐसा कोई उपदेशका प्रसंग बने, कोई शास्त्र लिखते हों, उन्हें भावना हो और वैसा कुछ कहे इसलिये (ज्ञान नहीं बदल जाता)। मार्ग अन्दरमें यथार्थ वस्तुतासे है। बोले यानी कुछ एकान्त कहना चाहते हैं, ऐसा अर्थ नहीं है। द्रव्यदृष्टिके बलके साथ उन्हें ज्ञान बराबर होता है। वे बोले इसलिये उसमेंसे कोई बिना समझे एकान्त खीँच ले तो वह उसकी स्वयंकी योग्यता है।
द्रव्यदृष्टिका बल इतना हो जाये कि पर्याय है ही नहीं ऐसा मान ले तो साधनाको बहुत बल मिलता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। लीनतामें बल, आश्रयमें बल, उसका बल आता है। कोई बार आचार्यदेवको भावना आये तो ऐसा बोले, किस नयसे भेद जानूँ? सब शुद्ध है।
मुमुक्षुः- व्यवहारनयका विषय ही मानो नहीं है, व्यवहारनय है ही नहीं, कथनमें तो ऐसा लगे।
समाधानः- हाँ, कथनमें (ऐसा लगे कि) मानो व्यवहार है ही नहीं। एक ओर आचार्यदेव कहे, अरे..रे..! यह व्यवहार नय भूमिकामें बीचमें हस्तावलम्बन तुल्य आता है, अरे..रे..! खेद है। उसे लेना पडता है, ऐसा कहे। और एक ओर ऐसा कहे कि, मैं शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ, परन्तु मेरी परिणति कल्माषित मैली हो रही है। इसलिये