Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

३८ महाव्रतके आधारके बिना मुनिपना कैसे पाले? मुनिओं अपने चैतन्यके आधारसे मुनिपना पालते हैैं। उनकी स्वानुभूतिके आधारसे (पालते हैं)। बारंबार अपने स्वानुभवमें-अमृतरसमें लीन होते हैं। उसके आश्रयसे मुनिपना पालते हैं। उसमें उन्हें शुभभाव पंच महाव्रत तो बीचमें आते हैं। परन्तु उसका आश्रय हो तो ही मुनिपना पले, ऐसा नहीं है। लेकिन स्वानुभूतिका जो आनन्द है, जो स्वानुभूति क्षण-क्षणमें प्रगट होती है, उसके आश्रयसे मुनिपना पालते हैं।

अतः पहले श्रद्धा तो बराबर ऐसी करनी कि दोनों भाव हैं, उससे मैं भिन्न निर्विकल्प तत्त्व हूँ। बीचमें ये शुभभाव आते तो हैं, लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है। दृष्टि तो चैतन्य पर स्थापित करके, मैं तो सर्वसे भिन्न चैतन्य भिन्न हूँ। दृष्टि तो बराबर ऐसे दृढ करनी। फिर बीचमें शुभभाव आये वह दूसरी बात है। ऐसे प्रारंभमें देव-गुरु-शास्त्र, वह सब परिणाम तो साथमें होते हैं। परन्तु मैं चैतन्य सर्वसे भिन्न निराला हूँ। दृष्टि तो वह करने जैसी है।

मुमुक्षुः- .. जीवको क्यों ... यह हमारे बलुभाई कहते हैं।

समाधानः- अनादिका अभ्यास है। बाहरकी एकत्वबुद्धि हो रही है। इसलिये उसमेंसे भिन्न होना मुश्किल पडता है। बुद्धिसे नक्की करता है कि मैं भिन्न हूँ। परन्तु अंतरमेंसे परिणति भिन्न नहीं करता है। उससे परिणतिको भिन्न नहीं करता है। इसलिये ऐसे ही चला जाता है।

... तू भगवान आत्मा, तू भगवान आत्मा बारंबार कहते थे। परन्तु वह अन्दरमें दृढ करना, प्रतीत भले ही स्वयंको आवे, परन्तु अन्दरसे भिन्न करना आत्माकी परिणति भिन्न करके, वह स्वयंको करना है। यह द्रव्य चैतन्य है, ये उसके गुण हैं, ये उसकी पर्याय है। कहते हैं न, जो भगवान आत्माको जाने,.... जो जिनवरको जाने वह स्वयंको जानता है। ऐसे नक्की करे कि मैं यही हूँ। ऐसा दृढ निश्चय करके उसका पुरुषार्थ करे कि जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा ही मेरा आत्मा है। ऐसा नक्की करके पुरुषार्थ करे तो हो। नक्की करके, बुद्धिमें नक्की किया, परन्तु पुरुषार्थ तो करना पडता है। उसकी परिणतिको भिन्न करना बाकी रहता है। एकत्वबुद्धि हो रही है।

निज चैतन्यमें दृष्टिको स्थापित करना बाकी रहता है। पुनः, एक बार करके छोड दे, ऐसा नहीं। क्षण-क्षणमें उसे याद करता रहे, उसे महिमासे याद करता रहे। उसे शुष्क हो जाय, ऐसे नहीं। उसे अंतरसे महिमा आनी चाहिये। यह चैतन्य ही महिमावंत है। ऐसे।

मुमुक्षुः- यह मिला है वह अपूर्व है। सुननेवाले हैं, परन्तु सुननेवाले सुनते हैं, लेकिन अंतर परिणमन नहीं करते हैं। बाहर निकलते ही, शोरगुलमें लग जाते हैं।