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समाधानः- मुनिको धर्मध्यान होता है। शुक्लध्यानके दो भाग हैं-एक प्रथम भाग और एक दूसरा भाग। दूसरा भाग शुक्लध्यानका एकदम उज्जवल होता है। जिसे केवलज्ञान होता है उसीको शुक्लध्यान होता है। और ये सम्यग्दर्शन तो गृहस्थाश्रममें होता है। और उसकी स्वानुभूति, सम्यग्दर्शन वह गिरता नहीं है तो पंद्रह भवमें, तीसरे भवमें ऐसे जाता है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते हैं न कि सम्यग्दर्शनके बाद ही धर्म शुरू होता है। जैन किसे कहते हैं? जिसे सम्यग्दर्शन हुआ हो वह।
समाधानः- सम्यग्दर्शन हुआ हो वही सच्चा जैन कहलाता है। सच्चा जैनत्व तब कहनेमें आता है। सम्यग्दर्शन न हो तबतक भावना करे, विचार करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ये स्वरूप मेरा नहीं है। उसका भेदज्ञान करे। यह शरीर मैं नहीं हूँ, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे विकल्प बीचमें आये, लेकिन ये सब बीचमें राग है। उस रागसे भी मैं भिन्न चैतन्य अखण्ड द्रव्य हूँ। इस प्रकार अपने ज्ञायकका अस्तित्व भिन्न विचारे। ज्ञायकके अन्दर अनन्त गुण हैं। उसकी पर्यायें परिणमती है। ऐसा उसका स्वभाव (है)। उसका विचार करे, उसका निर्णय करे। जबतक प्रगट न हो, तबतक उसका विचार, वांचन, महिमा, लगन करता रहे। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, जबतक न हो तबतक करता रहे।
मुमुक्षुः- समयसार तो मुझे निश्चितरूपसे लगा कि, सम्यग्दर्शन न हो तबतक वह समझमें आये ऐसा नहीं है।
समाधानः- अपनी परिणति प्रगट हो, भेदज्ञान, स्वानुभूति उसे सम्यग्दर्शन कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- मिथ्यादर्शनको निकालना वह सम्यग्दर्शन।
समाधानः- सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, इसलिये मिथ्यादर्शन चला जाता है। वह तो आमनेसामने है। ... अलग वस्तु है। शास्त्रसे विचार करे वह अलग बात है। अंतरमें परिणति प्रगट करनी, वह अलग वस्तु है।
मुमुक्षुः- ज्ञानका अर्थ ही गुरुदेवने इतना सुन्दर समझाया है। ज्ञान माने क्या? शास्त्रोंका ज्ञान वह ज्ञान ही नहीं है। आत्माका परिणमन वह ज्ञान है। उस ज्ञानमें परिणमे वह..
समाधानः- ... ज्ञान तो अंतरमें (होता है वह है)। .. उसके सब क्रम आते हैं। गुणकी भूमिका। सम्यग्दर्शन, उसके बाद उसमें अधिक लीनता हो तो पाँचवी भूमिका आये, फिर छठ्ठीस-सातवीं भूमिका मुनिओंकी आये, ऐसे-ऐसे अन्दर श्रेणि बढती जाय, सम्यग्दर्शनके बाद उसकी चारित्रदशा अंतरकी स्वानुभूति