५८ बढती जाती है, ऐसे।
मुमुक्षुः- फिर भी उन सबको जडमें डाल दिया।
समाधानः- हाँ, वह आता है। वह जडमें (कहा), परन्तु...
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- दृष्यि यथार्थ कर, ज्ञान यथार्थ कर। परन्तु बीचमें पुरुषार्थ करनेका तो आता है। अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है, उस द्रव्यके अन्दर कुछ मलिनता नहीं हुयी है या अपूर्ण-पूर्णकी अपेक्षा नहीं है। गुणस्थान सब जड है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। परन्तु तेरी साधनामें बीचमें आये बिना नहीं रहते।
निश्चय और व्यवहारकी सन्धि ऐसी है कि उसे सुलझाना, वह तो उसकी यथार्थ दृष्टि हो तो सुलझा सकता है। उसे जड कहा और तेरे चैतन्यमें अन्दरकी अनुभूति होती है। तेरे अन्दर चारित्रदशा आती है, ऐसा कहा। चारित्रका विकल्प आये वह सब विभाव है, ऐसा कहा। मति-श्रुतज्ञान, अवधि, मनःपर्यय वह सब ज्ञानके भेद हैं। वह भेद भी तेरा पूर्ण स्वरूप नहीं है। तू तो ज्ञायक है। फिर बीचमें भेद तो आते हैं। मतिज्ञान हो, श्रुतज्ञान हो, केवलज्ञान हो, सब होता है। फिर कहते हैं कि तू केवलज्ञान पर दृष्टि मत करना। केवलज्ञान तो एक पर्याय है। इसलिये तू अखण्ड पर दृष्टि कर। लेकिन वह प्रगट हुए बिना रहता नहीं। निश्चय-व्यवहारकी ऐसी सन्धि है। दृष्टि तो अखण्ड द्रव्य पर कर, परन्तु बीचमें ज्ञानकी पराकाष्टा तो प्रगट होती है। उसका ज्ञान कर। प्रतीति यथार्थ कर, उसका ज्ञान कर कि ऐसे पर्यायके भेद अन्दर प्रगट होते हैं।
मुमुक्षुः- क्योंकि आत्मा अनन्त धर्मात्मक है। इसलिये व्यवहारनय और द्रव्यनय, वह तो साथमें रहेंगे ही।
समाधानः- हाँ, व्यवहार तो पर्यायका भेद है, वह साथमें होता है, उसका ज्ञान कर। पर्यायके जो भेद है,.. क्या द्रव्य अनन्त कहा?
मुमुक्षुः- धर्मात्मक। आत्मा अनन्त धर्मात्मक..।
समाधानः- हाँ, हाँ, अनन्त धर्मात्मक। अनन्त धर्म आत्मामें हैं, उसका ज्ञान कर। परन्तु तू ऐसे विकल्प करता रह कि ये ज्ञान है, ये दर्शन है, ये चारित्र है, यह है, यह है। ऐसे तू उसका ज्ञान कर, परन्तु विकल्पमें रुकनेसे तो राग होता है। इसलिये तू दृष्टि निर्विकल्प पर कर। परन्तु निर्विकल्प दशा प्रगट नहीं हुयी है इसलिये विकल्प तो बीचमें आते हैं, इसलिये उसका ज्ञान बराबर कर। इसलिये उसमें गुण नहीं है, ऐसा नहीं है। उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, सब है। परन्तु वह अभेद है, ऐसे। उसमें कोई टूकडे नहीं हैं।
मुमुक्षुः- जीवनमें ये दो वस्तु तो रहेगी।