Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

६२ है)। बाकी तो स्वानुभूतिकी शान्ति अपूर्व है, वह आनन्द अपूर्व है। खरा आनन्द तो स्वानुभूतिमें है। भेदज्ञानमें ज्ञायकको भिन्न करे तो उसमें अमुक प्रकारसे शान्ति है। बाकी विकल्पकी एकत्वता वह सब तो आकुलता है।

मुमुक्षुः- दूसरा कोई विकल्प न करे और मैं चैतन्य ही हूँ, ऐसा करे तो?

समाधानः- विकल्प न करे तो (ऐसा नहीं होता), विकल्प आये बिना रहते ही नहीं। मैं चैतन्य हूँ, वह भी एक शुभभावका विकल्प है। विकल्प न करे (ऐसे नहीं होता)। पहले विकल्प नहीं छूटते, विकल्पसे मैं भिन्न हूँ, ऐसी श्रद्धा-पहले तो प्रतीत हो, पहले तो भेदज्ञान हो, बादमें विकल्प छूटते हैं। विकल्प न करें तो? विकल्प तो बीचमें आते हैं। उसकी कर्ताबुद्धि तोडनी है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं कोई विभावका कर्ता नहीं हूँ। मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ। परन्तु विभाव परिणति तो बीचमें आती है। मैं चैतन्य हूँ, ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ सब विकल्प है।

मुमुक्षुः- तो फिर अन्दरकी शान्ति नहीं कहलाती?

समाधानः- अन्दरकी शान्ति कहलाती। ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, ऐसे शुभभावके कारण मन्दता हो, आकुलता कम हो, इसलिये उसकी शान्ति लगे। परन्तु वह कोई अंतर स्वभावकी शान्ति नहीं है। विकल्प मन्द हुए, शुभभाव कषाय मन्द हुआ, शुभभावका आश्रय लिया इसलिये शान्ति लगे। अप्रशस्तमें-से प्रशस्तमें आया-देव-गुरु-शास्त्रमें उसे शान्ति लगे और अंतरमें जाय, श्रुतका चिंतवन करे कि मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ऐसे विचार करे तो भी उसे शान्ति लगे। लेकिन वह शान्ति स्वभावकी शान्ति नहीं है।

स्वभावकी शान्ति तो भेदज्ञान करे, यथार्थ भेदज्ञान करे, अभी तो पहले श्रद्धा होती है, भेदज्ञानकी परिणति यथार्थ हो तो उसमें शान्ति हो। आनन्द तो विकल्प छूटकर निर्विकल्प हो, तब वह आनन्द आता है। अभी तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र (आदि विकल्प) मिश्रित है, वह कोई निर्विकल्प (दशा) नहीं है।

मुमुक्षुः- इसमें आनन्द तो आता है, बहुत शान्ति लगती है।

समाधानः- विकल्प मिश्रित है, शुभभावका आनन्द है। प्रशस्त भावका आनन्द है। वह तो बीचमें आये बिना नहीं रहता। जबतक आत्माकी निर्विकल्प शान्ति, आनन्द नहीं आता तबतक मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ऐसे विकल्प आये बिना नहीं रहते। आचार्यदेव कहते हैं कि मैं आगे जानेका कहता हूँ, वहाँ अटकनेको नहीं कहते हैं, उसे छोडनेका नहीं कहते हैं, परन्तु तू आगे बढ। तेरा स्वभाव तो विकल्प रहित निर्विकल्प आनन्दस्वरूप है, ऐसा कहते हैं।

मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, वह बीचमें आता है। लेकिन वह कोई मूल