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स्वभाव नहीं है। भिन्न चैतन्य हूँ। अखण्ड चैतन्य पर दृष्टिको स्थापित करनी, भेदज्ञानका प्रयत्न करना, वह शान्ति-स्वभावमें-से शान्ति (आनेका उपाय है)। अभी शान्ति उसमें प्रगट नहीं हुयी है, परन्तु उसका भेदज्ञान करना वह उसका उपाय है। ये सब विचार तो बीचमें आते हैं-ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ। लेकिन उसमें शान्ति नहीं मान लेना। वह कोई स्वभावकी शान्ति नहीं है। वह तो स्वभाव पहचाननेके लिये बीचमें आता है। लेकिन मैं चैतन्य हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी दृष्टि करके यथार्थ ज्ञायकको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे। ज्ञायक यथार्थपने ग्रहण तो भेदज्ञान हो। ज्ञायकको ग्रहण करे, भेदज्ञानका प्रयत्न करना, यथार्थ शान्ति प्रगट करनेके लिये। अंतरमेंसे सूक्ष्म ग्रहण करे, आत्माका स्वभाव पहचाने तो यथार्थ शान्ति हो। वह शान्ति तो विकल्प मिश्रित है, वह विकल्प रहित शान्ति नहीं है। प्रशस्त भाव है।
मुमुक्षुः- इतना कहाँ मालूम पडता है, आत्माकी शान्ति तो...?
समाधानः- क्या?
मुमुक्षुः- चिडीयाको, मेंढकको।
समाधानः- उसे मालूम पड जाता है। उसे ज्ञान, दर्शन, चारित्रके नाम भी नहीं आते, नौ तत्त्वके नाम नहीं आते। लेकिन यह ज्ञानस्वभाव मैं, यह हूँ, ऐसे उसे विचार आते हैं। लेकिन वह समझता है कि यह सब आकुलता है, मैं उससे भिन्न चैतन्य हूँ। ऐसे अस्तित्वको ग्रहण कर लेता है। उसे नामकी जरूरत नहीं पडती, भाव ग्रहण कर लेता है।
उसे कहीं सुख नहीं है, ऐसे कोई भाव उसे प्रगट होते हैं। ये सब आकुलता है। विभावोंकी आकुलता भास्यमान होकर, अन्दरमें-से ऐसा भावभासन हो जाता है कि मैं कौन हूँ? और यह सब क्या है? मेरा स्वभाव क्या? और यह सब क्या है? उसमें-से उसे स्वभाव ग्रहण हो जाता है कि यह चैतन्य मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। ऐसा भावभासन हो जाता है। उसमें स्वयंको ग्रहण कर लेता है। सूक्ष्म-सूक्ष्म भाव भी आकुलतारूप है और विकल्प रहित मेरा आत्मा वही शान्ति और आनन्द है, ऐसी प्रतीति और ऐसा भावभासन हो जाता है।
मुमुक्षुः- मनुष्यसे उसकी शक्ति ज्यादा है?
समाधानः- शक्ति ज्यादा नहीं है। उसे ऐसे कोई संस्कार (होते हैं), पूर्व भवमें सुना होता है, उसमें-से आत्मा जाग उठता है। मनुष्योंकी शक्ति ज्यादा है, लेकिन जो पुरुषार्थ करे उसे हो।
मुमुक्षुः- भावभासन।
समाधानः- भावभासन होता है। उसे पूर्वके संस्कार (होते हैं), सुना होता है,