६६
मुमुक्षुः- छोडतो तो नहीं है।
समाधानः- नहीं, अन्दर निरंतर पुरुषार्थ चालू नहीं रखता है। थोडी देरके छोड दिया। फिर थोडी देरके बाद उग्र हो, पुनः छोड दिया, मन्द हो जाय, तीव्र हो जाय, मन्द हो जाय, तीव्र हो जाय, एकसरीखा पुरुषार्थ तो करता नहीं है। अतः स्वयंकी भावनामें कचास है।
मुमुक्षुः- एकसरीखा कैसे हो? ज्ञायककी धून लगे?
समाधानः- ज्ञायकमें करने जाय कि ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, भावसे करे फिर पुनः रूखा हो जाय तो भी नहीं होता। ऐसे विकल्पसे धोखता रहे तो भी नहीं होता।
मुमुक्षुः- ऐसा..
समाधानः- अंतरमें-से होना चाहिये तो हो।
मुमुक्षुः- अंतरमें-से कैसे हो? बात तो बहुत बार होती है।
समाधानः- एक बार भावनासे करे कि बस, यह करना ही है। फिर मन्द हो जाय और फिर धोखनेरूप हो जाय कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। तो ऐसे नहीं होता।
मुमुक्षुः- परन्तु माताजी! आपके चरणमें, गुरुदेवके चरणमें बरसोंसे रहनेकीी भावना तो यही है कि चाहे जितनी प्रतिकूलता पडे यह करनेसे ही लाभ है, दूसरा कोई लाभ नहीं है।
समाधानः- भावना ऐसी हो, वह बात सच्ची है। परन्तु अन्दरसे उतना स्वयंको करना चाहिये। तो हो। भावना हो, परन्तु वह करता नहीं है।
मुमुक्षुः- ऐसा भी लगता है कि करना चाहिये और करनेपर ही छूटकारा है।
समाधानः- हाँ, करने चाहिये, ऐसा भाव आये। कोई-कोई बार आये कि करना चाहिये, होता नहीं, ऐसा भाव आये, और करता नहीं है वह बात भी उतनी ही सत्य है। जितनी अपनी कचास है, उतना ही लंबा होता है। अपनी मन्दतासे ही लंबा होता है। कोई कारण उसे रोकते नहीं।
मुमुक्षुः- फिर ऐसा होता है कि..
समाधानः- देशना तो इतनी प्राप्त हुयी और स्वभाव अपना ही है, पुरुषार्थ करे और काललब्धि परिपक्व न हो ऐसा बनता ही नहीं। पुरुषार्थकी कचासको और काललब्धि, दोनोंको सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- ऐसा होता हि इतना सुनते हैं, और फिर बार-बार माताजीके पूछे उसमें शर्म आती है। माताजीने हमें सब कह दिया है, गुरुदेवने बहुत कहा है। फिर हम पूछते रहें, उसमें शर्म आती है। तो भी पूछनेका मन हो जाता है।
समाधानः- होता नहीं, इसलिये कैसे करना? कैसे करना? ऐसा हो। मार्ग तो