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एक ही है।
मुमुक्षुः- माँके पास आये, भूख लगी हो तो माँ भोजन देती ही है। वैसे आप हमें इतना देते हों तो ऐसा हो जाता है कि माताजीके पास कुछ सुन ले।
समाधानः- भावना हो, लेकिन करना स्वयंको है।
मुमुक्षुः- ऐसा योग मिल?
समाधानः- ऐसा योग इस पंचमकालमें मिलना मुश्किल है। गुरुदेवने इतना धोध बरसाया। दृष्टि कहाँ बाहर थी, उसमेंसे अंतर दृष्टि करवायी। अंतरमें सब है।
मुमुक्षुः- चार गतिमें, भवभ्रमणमें... मुमुक्षुः- इतनेमें शान्ति संतोष मान ले तो भी कार्य रह जाता है। इसलिये वास्तवमें अन्दरसे ही वीर्य उछले और काम हो, तो ही शान्ति हो।
समाधानः- कारण स्वयंका ही है। भावना ऐसी हो कि करना है, करना है। जो चाहिये वह मिलता नहीं, इसलिये शान्ति तो लगे नहीं। जो विभाव है वह कोई शान्ति है। और शान्तिकी इच्छा है, शान्ति मिलती नहीं। इसलिये उसकी भावना ऐसी रहा करे, इसलिये शान्ति तो.. जब अंतरमें-से प्रगट हो तब शान्ति हो।
लेकिन जिसने ऐसा नक्की किया है कि यह प्रगट करना ही है, उसका पुरुषार्थ उसे पहुँचे बिना रहेगा नहीं। उसे समय लगे, परन्तु उसे ग्रहण किये बिना नहीं रहेगा। जिसे अंतरमें-से लगी है कि यह ग्रहण करना ही है और इसे प्रगट करना ही है। तो वह धीरे-धीरे भी पुरुषार्थ उठता है, लेकिन उसे यदि लगी ही है अंतरमें-से कि दूसरा कुछ नहीं चाहिये और यही चाहिये तो काल लगे, लेकिन वह प्रगट किये बिना नहीं रहेगा। स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं है। इसलिये स्वयंको जो लगी है, वह तो पहुँचेगा ही, समय लगे तो भी। अंतरकी रुचि प्रगट हो वह पहुँचे बिना रहता ही नहीं। भले समय लगे। लेकिन अंतरमें जिसे लगन लगी वह पहुँचे बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- जो समय लगता है वह रुचता नहीं।
समाधानः- रुचे ही नहीं।
मुमुक्षुः- इतने सालसे यहाँ रहते हैं और इतने सालके बाद काम हो जाना चाहिये। किसीको श्रवण होते ही प्राप्त हो जाय, शास्त्रोंमें कितने दृष्टान्त आते हैं। और बहुत जीव, आप जैसे, गुरुदेवके थोडे प्रवचन सुननेमें हो गया तो हमने तो कितने प्रवचन सुने। इतने साल हो गये, फिर समय लगे उसका दुःख लगे, शर्म लगे। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि माताजीके पास मैं जाऊँ कैसे? माताजीको पूछुँ कैसे? शर्म लगती है। माताजीने तो मुझे सब कह दिया है। सर्व प्रकारसे, कितने प्रकारसे गुरुदेवने सब कहा है, आपने बहुत कहा है।