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समाधानः- भावना है न इसलिये पूछना हो जाता है। गुरुदेवने तो मार्ग बताया है। करनेका स्वयंको है। गुरुदेवने सब तैयार करके दिया है, स्वयंको एक पुरुषार्थ करनाही बाकी रहता है, कुछ खोजनेका बाकी नहीं रहता कि कहाँ खोजना? कहाँ प्राप्त करना? जगतके जीवोंको सत खोजनेमें दिक्कत होती है कि क्या सत है? क्या आत्मा? सुख कहाँ है? आत्मा क्या है? सत खोजना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तो खोजनेकी कोई दिक्कत नहीं है।
गुरुदेवने खोजकर, तैयार करके, स्पष्ट कर-करके दिया है। एक पुरुषार्थ करना वही स्वयंको बाकी रहता है। खोजकर दिया है। बाहर दृष्टि थी, बाह्य क्रियामें उसमें-से छुडाकर, अंतर विभाव परिणाम होते हैं वह तेरा स्वभाव नहीं है। शुभभाव सूक्ष्मसे सूक्ष्म, ऊँचेसे ऊँचा हो, वह भी तेरा स्वभाव नहीं है। तू अन्दर शुभभावमें भेदमें रुके वह भी तेरा मूल शाश्वत स्वरूप नहीं है। तुझे अंतरमें एकदम दृष्टि गहराईमें चली जाय, उतना स्पष्ट करके (दिया है)। कहीं खोजना न पडे, ऐसा बताया है।
जबकि जगतको जीवोंको सत खोजना (पडता है), सत प्राप्त नहीं होता, सत कहाँ खोजना? कोई कहाँ फँस जाता है और कोई कहाँ फँस जाता है। कहीं खोजना नहीं है। एक पुरुषार्थ करना (बाकी है)। तैयार करके दिया है। स्वयंको एक पुरुषार्थ करना ही बाकी रहता है।