मुमुक्षुः- .. वह प्रश्न होता है कि आत्मा है, तो सब व्यक्तिमें भिन्न-भिन्न आत्मा है कि सृष्टिमें एक ही आत्मा है और उसका अंश है?
समाधानः- सब भिन्न-भिन्न आत्मा हैं, अंश नहीं है। सब द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं। जगतमें जो आत्मा हैं, सब स्वतंत्र हैं। यदि एक अंश हो तो एकको दुःखका परिणाम हो, दूसरेको दूसरा परिणाम हो, दूसरेको दूसरा परिणाम हो, सबके परिणाम एक समान नहीं होते। एकको दुःख हो तो सबको दुःख होना चाहिये। एक मोक्षमें जाय, कोई स्वानुभूति करे, कोई अंतर आत्माको पहचाने तो कोई नहीं पहचानता है, किसीको जन्म-मरण खडे रहते हैं, किसकी मुक्ति होती है। अतः ऐसे भेद पडते हैं। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र हैं, अंश नहीं है।
सब स्वतंत्र आत्मा हैं, किसीका अंश नहीं है। एक अंश है और एक पूर्ण वीतराग है, उसके सब अंश हैं, ऐसा नहीं है। जो वीतराग होते हैं वह स्वतंत्र स्वयं राग- द्वेष छोडकर सर्वज्ञ होता है। फिर उसे विभाव होता ही नहीं, निर्मल होता है। फिर उसके थोडे अंश रखडे और थोडे निर्मल रहे, ऐसा नहीं होता। वह स्वतंत्र स्वयं... प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। स्वयं राग-द्वेष करे स्वतंत्र और वीतरागता करे स्वतंत्र, दोनों स्वतंत्र वस्तु हैं। स्वयं अपने पुरुषार्थसे करता है। स्वयं वीतराग हो, स्वयं राग-द्वेष छोडे। किसीका अंश हो तो एक मोक्षमें जाय तो एक संसारमें रहे, ऐसा नहीं बनता। इसलिये प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं।
मुमुक्षुः- योगवसिष्ठ मैंने पढा। उसमें ऐसा होता है कि आत्मा एक ही है। इसलिये मुझे द्विधा हुयी कि वह भी आत्माकी बात है, यह भी आत्माकी बात है। तो दोनों भिन्न-भिन्न कैसे हो सकते हैं? धर्म भले भिन्न प्रकारसे बतायें, परन्तु होना चाहिये एक ही। आत्माकी बात है तो एक ही वस्तु होनी चाहिये न? भिन्न-भिन्न कैसे हो ही सकती है? इसलिये द्विधा होनेसे योगवसिष्ठका तो किसे पूछने जाना? मैं किसीको ऐसा जानती नहीं। आपके पास समाधान कर सकुँ इसलिये यहाँ दौडी आयी।
समाधानः- ऐसा है कि अलग दृष्टिमें अलग बात आये। उसमें यथार्थ क्या है, स्वयं विचार करके नक्की करना। सभी द्रव्य यदि एक ही हों, एक ही अंश हों तो