७० जीवकी स्वयंकी स्वतंत्रता रहती नहीं। स्वयं परतंत्र हो गया। वस्तुमें ऐसा अन्याय कुदरतमें नहीं होता।
स्वयंको पुरुषार्थ करना हो तो एक अंश पुरुषार्थ करे और दूसरा अंश संसारमें रखडे, ऐसा तो हो सकता नहीं। इसलिये प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। इसलिये उसमें जो आया उसकी दृष्टि अलग है, ऐसा समझ लेना। स्वयंको न्यायसे क्या बैठता है, यथार्थ वस्तुस्थिति क्या है, अपना स्वभाव क्या है, वह स्वयं अपनेसे नक्की कर लेना कि इसमें ऐसा है और उसमें वैसा है, तो यथार्थ क्या होना चाहिये? सब एक ही हो तो जीवकी स्वतंत्रता कहीं नहीं रहती। स्वयं स्वतंत्रपने कर सके ऐसा होना चाहिये। उसके बजाय सब अंश एक हों तो स्वतंत्रता नहीं रहती।
मुमुक्षुः- मेरे मनमें निश्चय तो यही हुआ। फिर भी इसमें यह पढा, उसमें ऐसा है। मुझे ऐसा हुआ कि मेरी अज्ञानता हो सकती है, मेरी समझमें फर्क पड सकता है। आप ज्ञानी हो, आप यहाँ तक पहुँचे हो तो आपके पास (समाधान करने आयी हूँ)।
समाधानः- प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। ईश्वर कर्ता है, ईश्वर सब करता है। ईश्वर कर्ता हो नहीं सकते। वीतराग हो जाय वह कर्ता हो तो उसमें रागादि सब आ गया। जो वीतराग हो वह स्वयं अपनेमें ही होते हैं। और उसके अंश नहीं होते। उसके अंशका अर्थ यह कि स्वयं एक चैतन्यद्रव्य आत्मा है, उसमें उसकी पर्यायें, उसकी अवस्थाएँ, उसमें अनन्त गुण और उसकी अनन्त अवस्थाएँ वह उसके अंश हैं। बाकी दूसरे द्रव्य उसके अंश नहीं हैं।
स्वयं निज स्वभावका कार्य करे, स्वयं ज्ञानरूप, आनन्दरूप उसका कार्य करे, वह उसके अंश समझना। बाहरके अंश वह उसका अंश नहीं है। अपने अंश हैं वह स्वयंके अंश है। बाहरके अंश, दूसरे जीवोंके अंश वह उसके अंश नहीं है।
एक द्रव्यके अन्दर अनन्त स्वभाव होते हैं, अनन्त जातके कार्य होते हैं, जीव विभावमें हो तो राग-द्वेषके विकल्पके अनेक जातके वह कार्य करता है। वह उसके अंश हैं। और स्वभावमें तो ज्ञानरूप, आनन्दरूप, अपनी निर्मलतारूप, विकल्प रहित अकेली निर्विकल्प अपूर्व स्वानुभूति, लौकिकमें जिसका अंश भी नहीं है, ऐसी अपूर्व, जिसे किसीके साथ मेल भी नहीं है, ऐसे अनुपम आत्माका कार्य करे वह उसके अंश हैं। ये बाहर द्रव्यके अंश वह अंश नहीं है। अन्दर स्वयं अपने अंशस्वरूप परिणमता है। दूसरेके अंशरूप स्वयं नहीं परिणमता।
मुमुक्षुः- प्रत्येक आत्माका स्वभाव एक है, उसका अर्थ यह हुआ न?
समाधानः- स्वभाव एक जातिका है। एक जात है। जाननेवाला है। सब जीव