Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1304 of 1906

 

७१
ट्रेक-२०१

जानते हैं। ये पुदगल कुछ जानता नहीं। ये पुदगल एक जातिके हैं। इसमें वर्ण, गन्ध, रस ऐसा सब हो, वह एक जात। वह सब एक जात है। और जो जाननेवाला-जाननेवाला है, वह जाननेकी अपेक्षासे सब जाननेवाले एक जातिके। परन्तु उसकी जात यानी सब एक नहीं हो जाते।

मुमुक्षुः- हम सिर्फ एक ध्यान रखे कि मेरा आत्मा करवाता है और इस शरीरसे मैं करता हूँ, तो अपना अहंभाव चला जाय न? मैं करता हूँ, ऐसा जो हम लोगोंको लगता है, वह अज्ञान है। हमें ऐसा लगता है कि ये सब मैं करता हूँ। घरमें कुछ भी काम करते हो, तो मैंने किया, मैंने किया। वह अहंभाव, यदि आत्मा करता है, आत्मा करवाता है और इस शरीरसे करता हूँ, तो अहंभाव चला जायगा?

समाधानः- आत्मा करवाता नहीं, आत्मा जाननेवाला है। परपदार्थकी कर्ताबुद्धि, कुछ करना वह उसका स्वभाव नहीं है। ये तो शरीर है, बीचमें निमित्त और विकल्प आते हैं। इसलिये विकल्पोंसे होता है। विकल्पमें आत्मा जुडता है इसलिये होता है। लेकिन ऐसा करना उसका स्वभाव नहीं है, ऐसा सब करनेका।

मैं तो जाननेवाला ज्ञायक हूँ। ये सब कर्ताबुद्धि (है)। परद्रव्यका मैं कैसे कर सकूँ? मैं कोई करनेवाला नहीं है। लेकिन इस शरीरके साथ अनादिका सम्बन्ध है और विकल्प, राग-द्वेषमें पडा है। अतः कर्ताबुद्धि है इसलिये होता है। बाकी मैं जाननेवाला हूँ। किसीका मैं कुछ कर नहीं सकता। परपदार्थका मैं कुछ नहीं कर सकता। अहंभाव छोड दे।ैं दूसरेका कुछ नहीं कर सकता, मेरे आत्माका कर सकता हूँ। मैं परपदार्थरूप होता नहीं। मैं तो स्वभावरूप होऊँ वह मेरा स्वभाव है। ये बाहरका करना वह मेरा स्वभाव नहीं है।

ऐसे स्वभावका विचार करे। विकल्प आये इसलिये यह सब करनेका होता है। विकल्पके कारण। मैं कोई अन्यरूप हो जाऊँ तो मैं घररूप हो जाऊँ। यदि मैं घररूप होऊँ तो। मैं तो भिन्न हूँ। मैं कहीं घररूप भी नहीं हूँ और इस शरीररूप भी नहीं हूँ। शरीरसे भी मैं तो भिन्न हूँ। इसलिये ये सब करना तो स्वतंत्र होता है। मैं तो मात्र विकल्प मेरा हो, राग-द्वेषका इसलिये इसमें कार्यमें जुडता हूँ, कर्ताबुद्धिके कारण। बाकी मैं तो जाननेवाला हूँ।

मुमुक्षुः- अलिप्तपना आ सकता है?

समाधानः- आ सकता है। पुरुषार्थ करे तो आ सकता है। अंतरमें क्षण-क्षणमें ऐसा हो कि मैं तो जाननेवाला हूँ। ये सब एकमेक जो विकल्पकी जालमें (हो रहा हूँ), वह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो जाननेवाला हूँ, साक्षी हूँ। यह मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे अंतरसे विरक्ति आये और निर्लेप हो सकता है।