वाणी सुने, वह प्रत्यक्ष वाणी सुनकर अन्दर ऊतर जाय, फिर कहीं भी हो, वह प्रकट कर सकता है। गुरुदेव मुंबईमें पधारते थे, मालूम नहीं होगा?
मुमुक्षुः- नहीं, पहले मैं एक बार गई थी।
समाधानः- गये थे? वहाँ मुंबईमें।
मुमुक्षुः- हमको स्वयंको लगे, श्रद्धा बैठ जाय कि यह सत्य है, मुझे इस मार्ग पर जाना है।
समाधानः- श्रद्धा, स्वयं अंतरमें श्रद्धा करे कि यह मार्ग सच्चा है। फिर अंतरमें स्वयंको भेदज्ञान करना बाकी रहता है। यह शरीर मेरा स्वरूप नहीं है। अन्दर विभाव होते हैं, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो अंतरमें ज्ञायकस्वभाव जाननेवाला उसमें आनन्द भरा है। ऐसी श्रद्धा अंतरसे करके, अन्दर जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे तोडकर भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे कि मैं तो ज्ञायक हूँ। ऐसे बारंबार प्रयत्न करे, यथार्थ समझकर।
प्रयत्नका अभ्यास बारंबार करे तो उसे प्रगट हो। उसका अभ्यास यथार्थ होना चाहिये। उसकी श्रद्धा यथार्थ होनी चाहिये। जो गुरुने कहा है, उस मार्ग पर स्वयं बराबर चले तो अपने पुरुषार्थसे प्रगट कर सकता है। स्वयं कहीं भी हो, पुरुषार्थसे करे तो हो सकता है।
जीवनमें जो गुुरुदेवने मार्ग बताया है, उस मार्ग पर जाना है। कोई अपूर्व वाणी गुरुदेवकी बरसती थी। उस मार्ग पर जाना है। उस मार्ग पर स्वयं तैयार हो तो प्राप्त हुए बिना (रहता नहीं)। गुरुके वचन ग्रहण करे तो उसमें गुरुकी कृपा आ जाती है। जो गुरुने जो वचन कहे उस स्वयं अन्दर यथार्थ समझे, समझपूर्वक, बिना समझ नहीं, समझपूर्वक ग्रहण करे और पुरुषार्थ करे तो उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहता। ऐसा निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है।
... सब कम है। चैतन्यको पहचानना, चैतन्यको पहचानना। पूरा जीवन बदल जाता है। दृष्टि बाहर क्रियाओंमें थी, उसमेंसे चैतन्य पर दृष्टि करवायी। .. उसके पहले दादरमें था, वह कौन-सा वर्ष था? ८७वीं। भावसे करे उसमें .... गुरुदेवका प्रताप वर्तता है।
मुुमुक्षुः- चिन्ता रहती है। जैसे आपने गुरुदेवको सब सौंप दिया, हमने आपको सौंप दिया।
समाधानः- गुरुदेवने भाव... जहाँ भावप्रधान है, वहाँ बाह्य संयोग आडे आते ही नहीं। जहाँ भावप्रधानता होती है वहाँ। मार्ग इतना सरल कर दिया। दूसरोंको सत खोजना मुश्किल पड जाता है कि क्या स्वरूप है? और किस मार्ग पर जाना? ऐसा-