१३२ लाये, बारंबार उसका विचार करे तो होता है। बारंबार करना। अन्दर शुभभावमें देव- गुरु, जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र (होने चाहिये)। अंतरमें आत्माको कैसे पहचानुँ? आत्माकी महिमा आये, आत्मा कोई अपूर्व है, कोई अनुपम है। ऐसा उसके हृदयमें लगे तो उसमें विचार टिके। आत्माकी उतनी महिमा आयी नहीं हो, उतनी रुचि नहीं हो, रुचिकी मन्दता होती है, इसलिये वहाँ टिक नहीं सकता।
कारण दे उतना ही कार्य आता है। स्वयंका पुरुषार्थ मन्द है इसलिये उसका कार्य उतना ही आये। जिसका उग्र पुरुषार्थ है उसे कार्य आता है। अनन्त जीव पुरुषार्थ करके मोक्ष गये हैं, भेदज्ञान कर-करके गये हैं। स्वयंकी स्वानुभूति अंतरमें आत्माकी प्रगट की है, पुरुषार्थ द्वारा भेदज्ञान किया है। शरीर भिन्न आत्मा भिन्न, ऐसा क्षण- क्षणमें जिसकी परिणति हो जाये, सहज हो जाये। एक ज्ञायक आत्माकी परिणति।
ये तो उसे एकत्वका अभ्यास हो रहा है। शरीर और मैं, दोनों एक ही हैं, ऐसा उसे भासित होता है। विकल्पसे भिन्न तो भासित नहीं होता, परन्तु शरीरसे भिन्न भासित नहीं होता। ऐसी एकत्वबुद्धि (तोडनेको) बारंबार उसका अभ्यास करता रहे।
मुमुक्षुः- उसके लिये माताजी! स्वाध्याय पूरा-पूरा होना चाहिये?
समाधानः- हाँ, स्वाध्याय होना चाहिये, विचार होने चाहिये। स्वाध्याय करे तो उसके विचार आये कि इसमें क्या आता है? अनन्त जीव यह मार्ग प्राप्त कर मोक्ष गये हैं। गुरुदेव इस पंचमकालमें (पधारे)। बाहरमें सब थोडा कर ले तो मानो धर्म हो गया, ऐसा मानते हैं। लेकिन वह तो मात्र शुभभाव है, पुण्य बन्धता है, (उससे) देवलोक मिले, उससे भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है। गुरुदेवने मार्ग बताया कि आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है। मार्ग अंतरमें है, बाहरमें नहीं है। इसलिये करने जैसा वही है। अंतरमें कैसे पहचानमें आये? बारंबार विचार करना, बारंबार वांचन करना, नहीं समझमें तो किसीको पूछना, जो समझते हो उसे।
मुमुक्षुः- वहाँ अभी बन्धका स्वरूप चलता है। शुभभाव भी बान्धता है और अशुभभाव भी बान्धता है, तो पूरा दिना कौन-सा भाव करना?
समाधानः- शुभसे भी बन्ध है, अशुभसे भी बन्धन। उस भावसे भिन्न, आत्मतत्त्व भिन्न है, उस भिन्न आत्माको पहचाने तो अबन्ध परिणाम होते हैं। तो बन्धता नहीं है। शरीर और आत्माकी एकत्वबुद्धिसे बन्धा है। स्वयं ऐसा मानता है, स्वयंको भिन्न नहीं जानता। स्वयंको भिन्न जाने और स्वयंका भिन्न अनुभव करे तो बन्धका अभाव होता है। शुभ और अशुभ दोनों बन्धन करते हैं। उसमें अशुभभावसे बचनेको उसे शुभभाव गृहस्थाश्रममें होते हैं। लेकिन वह शुभभाव मन्द कषाय है, उससे पुण्य बन्धता है।