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गृहस्थाश्रममें अभी आत्माको नहीं पहचाना, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी भक्ति आये, उसके विचार आये, उसकी महिमा आये, वह बन्धन है, लेकिन वह आये बिना नहीं रहता। जबतक आत्मा पहचाननेमें नहीं आता, तबतक बीचमें आते ही हैं। लेकिन आत्माको जो भिन्न पहचाने, उसे पहचानकर आत्मामें लीन होवे तो वह भाव अबन्धभाव है, वह मुक्त (होता है), अन्दरसे छूटता है। लेकिन अभी आंशिकरूपसे छूटता है। सम्यग्दृष्टि होता है वह आत्माको पहचाने, वह गृहस्थाश्रममें हो तो उसे भी शुभभाव तो आता है। जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रके विचार आये। परन्तु जैसे-जैसे आगे बढे और स्वयं अन्दर आत्मामें लीन होते जाये, वैसे वह शुभभाव भी छूटते जाते हैं। ऐसा करते-करते मुनिदशा आती है, तब आत्मामें बहुत लीन होते हैं। क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होते हैं। इसलिये उन्हें शुभाशुभ दोनों भाव इतने कम हो जाते हैं, और आत्मामें लीन हो जाये तो वह शुभभाव छूट जाते हैं। आत्माको पहचानकर आत्मामें लीन होवे तो वह शुभाशुभ भावसे रहित होता है।
मुमुक्षुः- मध्यस्थ भाव.. माताजी!
समाधानः- शुभ और अशुभ दोनों बन्धनका कारण है, ऐसा बराबर जानना। सुवर्णकी बेडी और लोहेकी बेडी दोनों बन्धन करती है। परन्तु जबतक आत्माको भिन्न नहीं पहचाना है, तबतक स्वर्ण बेडीरूप जो शुभभाव है, वह बीचमें आये बिना नहीं रहते। इसलिये वह यदि गृहस्थाश्रममें शुभमें नहीं खडा रहेगा तो अशुभमें चला जायेगा। तो उससे तो पाप बन्धता है, उससे नरक, निगोद होता है। और इस शुभभावसे भवमें देवलोक मिले या ऐसा कुछ होता है, लेकिन वह भव तो प्राप्त होगा ही। शुभभावसे भगवान मिले, गुरु मिले परन्तु भव तो चालू ही रहेंगे। उससे रहित आत्माको पहचाने तो भवका अभाव होता है। इसलिये वह तो बीचमें आते हैं। लेकिन उससे भिन्न आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करना। कैसे पहचानमें आये? उसका अभ्यास करना, बारंबार विचार करना। उससे तीसरा भाव आत्माको पहचानना वह है।
(आत्माकी) अनुभूति हो, उसमें लीन हो जाये, बाहरकी कुछ खबर नहीं रहे, अन्दर ऐसा लीन हो जाये, वह तीसरा भाव है। परन्तु पहले वह नहीं हो तो उसकी श्रद्धा करे कि इन दोनों भावसे रहित आत्माका स्वरूप है। उससे नहीं हो सके तो पुरुषार्थ मन्द हो तो श्रद्धा तो बराबर करे। आचार्यदेव कहते हैं, तुझसे नहीं हो सकता है तो श्रद्धा बराबर करना कि ये दोनों भाव बन्धका कारण है। लेकिन उससे भिन्न भाव, जो ज्ञायक जानने वाला है, वह मोक्षका कारण है, ऐसी श्रद्धा तो बराबर करना। नहीं हो सके तो श्रद्धा तो बराबर रखना। शुभभाव जो है वह तो बीचमें आयेंगे। अशुभभावसे बचनेको वह पुण्यभाव बीचमें आयेंगे। परन्तु तू श्रद्धा बराबर रखना, नहीं