१३४ हो तो। श्रद्धामें ऐसा मत करना कि ये शुभभाव है, उससे देवलोक मिलेगा। ऐसी इच्छा मत करना। भिन्न आत्मा है, उसकी श्रद्धा करना।
मुमुक्षुः- उस श्रद्धाका फल ..
समाधानः- ऐसी श्रद्धा रखे उसमें जो विकल्प आये वह शुभभाव, पुण्यबन्धका कारण है। विकल्प पुण्यबन्धका कारण है। श्रद्धा तो उसे आगे बढनेका कारण बनती है। विकल्प पुण्यबन्धका कारण है।
मुमुक्षुः- इस भवमें बहुत प्रयत्न करनेके बाद भी, देव-गुरु-शास्त्र सबका योग है, फिर भी नहीं हो, जीवकी उन्नति नहीं हो तो इस परिणामसे यही चीज टिक सकती है?
समाधानः- स्वयंकी तैयारी हो तो टिक सकती है। ऐसे गहरे संस्कार डाले कि मुझे यही चाहिये। ऊपर-ऊपरसे हो तो नहीं रहता। गहरे संस्कार हो तो टिकता है। मुझे यही चाहिये, आत्मा ही चाहिये, और कुछ नहीं चाहिये। ऐसे गहरे संस्कार हो तो वह दूसरे भवमें टिकते हैं। अन्दर गहराईसे (होना चाहिये)। स्वयंको अन्दरसे रुचि होनी चाहिये तो टिकता है। और वह शुभभाव भी ऐसे होते हैं कि उसे साधन भी वैसे मिल जाते हैं। गुरु मिले, देव मिले। गहरी रुचि हो तो होता है। संस्कार गहरे होने चाहिये।
समाधानः- ... सत्य तो सरल और सुगम है, लेकिन सत्य खोजनेको चर्चा, राग-द्वेष आदि समझनेके लिये नहीं होते हैं। जिज्ञासु हो उसे समझनेके लिये होते हैं। तत्त्व क्या है उसका विचार, उसकी खोज, अन्दरसे मंथन आदि हो। विचार, वांचन (आदि होते हैं)। तत्त्व समझनेमें राग-द्वेष नहीं होते।
मुमुक्षुः- अधिकसे अधिक संघर्ष, सत्यको समझनेकी योग्यताके लिये है या किसके लिये है? हमारे जैसे भी..
समाधानः- बाहर तो शुभ विकल्प आये इसलिये... उसके लिये संघर्षमें जाना, ऐसा कुछ नहीं होता। वह तो स्वयंको स्वयंका करना है। बाहर तो शुभ विकल्प आये। स्वयंको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (ऐसे) लगे तो कहे, नहीं लगे तो नहीं कहे। उसके लिये संघर्ष करना, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। वह उसे रोकता नहीं। स्वयं विचार करके अंतरमें समझना है।
मुमुक्षुः- सत्य कोई ऐसे प्रकारसे है कि जिसे समझनेके लिये भिन्न-भिन्न मनुष्यको भिन्न-भिन्न प्रकारसे सत्य प्राप्त हो?
समाधानः- भिन्न-भिन्न प्रकारसे नहीं। अंतरमें तो मार्ग एक ही है। मार्ग अलग