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नहीं है। विचार करे, वांचन करे, स्वाध्याय करे। मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जानना चाहिये। अधिक जाने इसलिये समझमें आये या अधिक पढे तो समझमें आये ऐसा कुछ नहीं है। प्रयोजनभूत समझे तो आत्माको पहचाने। आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है, परपदार्थ क्या है, विभाव क्या है, स्वभाव क्या है, (ऐसा) प्रयोजनभूत समझे तो मुक्तिका मार्ग होता है। ज्यादा समझे और बहुत पढे, ऐसा कोई उसका अर्थ नहीं है। बीचमें अशुभभावसे बचनेको शुभभाव आते हैं, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शास्त्र स्वाध्याय आदि होता है, तत्त्वका विचार होता है, प्रयोजनभूत तत्त्वको जाननेके लिये। विशेष जाने तो उसे ज्ञानकी निर्मलता होती है, उसमें कोई नुकसान नहीं है। लेकिन ज्यादा जाने और ज्यादा पढे तो ही होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।
शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे। याद नहीं रहता था। बाई दाल धो रही थी। छिलका भिन्न और दाल भिन्न, ऐसा भिन्न समझकर (याद आ गया कि), मेरे गुरुने ऐसा कहा है, ऐसा समझकर यह आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न और विभावस्वभाव मेरा नहीं है, इसप्रकार भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये। ज्ञायकको पहचानकर, भेदज्ञान करके स्वरूपमें लीन हो गये तो उन्हें मार्ग प्राप्त हो गया। श्रेणि लगाकर केवलज्ञान हो जाये। प्रयोजनभूत जाने उसमें सब आ जाता है।
मुमुक्षुः- प्रयोजनभूतके ऊपर कोई नाम तो नहीं लिखा होता कि यह प्रयोजनभूत है। प्रयोजनभूतको नक्की कैसे करना?
समाधानः- प्रयोजनभूत-स्व-परका भेदज्ञान करना यह प्रयोजनभूत है। स्वयंके द्रव्य- गुण-पर्याय और अन्यका, परद्रव्यका स्वभाव और स्वद्रव्यके स्वभावको भिन्न करना, यह प्रयोजनभूत है। मूल वस्तु चैतन्यको पहचानना। ज्ञायक, ज्ञायक वस्तु स्वभावसे एक है। उसमें गुण और पर्याय, लक्षणभेदसे भेद है, मूलमें भेद नहीं है। उसमें गुण लक्षणसे भिन्न हैं। ऐसे द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप पहचाने। उसका परिणमन होता है वह पर्याय है। इसप्रकार मूल वस्तुको समझे। द्रव्य-गुण-पर्यायको (समझे), यह सब मूल प्रयोजनभूत है।
तत्त्वकी सब बात समझे, यह प्रयोजनभूत है। मूलभूत वस्तु। तिर्यंचको नौ तत्त्वके नाम भी नहीं आते, तो भी अन्दरमें मैं यह हूँ और यह विभाव है (ऐसा) समझता है। अन्दरमें साधकदशा प्रगट होती है। उसे संवर आ जाता है, आगे बढने पर निर्जरा होती है, सब उसमें आ जाता है, नाम नहीं आते हैं फिर भी। कर्मकी सत्ता कितनी, उसकी प्रकृति, उसका क्या, उसका रस कितना, उसकी स्थिति कितनी आदि कुछ नहीं आता। उसे देवलोक क्या, नर्क क्या, उसके भेद, कहाँ-से कहाँ जाता है और कहाँ-से कहाँ जाता है, वह सब नहीं आता है। सत्ता, स्थिति, प्रकृति आदि कुछ नहीं आता है। मूल प्रयोजनभूत तत्त्व भेदज्ञान आता है।