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मुमुक्षुः- पर्याय है। पारिणामिकभाव है उसमेंसे पर्याय निकलती है, उसमें समाविष्ट हो जाती है। अर्थात केप्सुल होती है, दवाई, फिर केप्सुलमें कुछ नहीं होता, लेकिन जो दवाई उसमें भरे, वह केप्सुल उसकी कही जाती है। वैसे जो वर्तमान-वर्तमान परिणति है, पर्याय, वह उसमेंसे निकलती है और उसमें समाविष्ट हो जाती है। समा जाती है तब खाली हो जाये। अर्थात निकलते समय और दाखिल होते समय बिलकूल खाली- खाली होती है। इसलिये पारिणामिकभावको कोई तकलीफ नहीं होती।
समाधानः- तकलीफ तो किसीको नहीं होती। वह तो भरा हुआ तत्त्व है। वह कोई खाली केप्सुल नहीं है।
मुमुक्षुः- खाली रहे फिर भर जाये। भरा हुआ कितने समय रहे? एक समय रहे? फिर खाली हो जाये?
मुमुक्षुः- अभी एक चर्चा निकली। पर्याय है वह निकलती है, फिर पर्याय फिरसे दाखिल हो जाये।
मुमुक्षुः- पर्यायका समय तो एक समय है।
समाधानः- खाली केप्सुलमें दवाई भरनी हो तो दवाई बाहर निकल जाये, फिर वही दवाई अन्दर प्रवेश कर ले, ऐसा?
मुमुक्षुः- परपदार्थके कारण रागक-द्वेष होता है। राग-द्वेष होता है उसका कारण बाह्य संयोगमें जुडता है। पर्याय तो रूखी ही है। फिरसे बाहर जाये तब खाली होकर जाये।
समाधानः- ... सुखसे भरा आत्मा है। वह अनन्त पारिणामिकभाव है। वह खाली भी नहीं होता और भरता भी नहीं है, जैसा है वैसा है। उसकी पर्यायें परिणमति हैं।
मुमुक्षुः- पर्यायका उत्पाद होता है और पर्यायका व्यय होता है। तो पर्याय कैसे निकलती है?
समाधानः- पर्याय अन्दर परिणमति है। उसके कार्य आते हैं। जो अनन्त गुण भरे हैं, जैसे ज्ञानलक्षण है (तो) ज्ञानका जाननेरूप कार्य आता है। वह उसका उत्पाद है। जो उसके गुण हैं, वह गुण गुणका कार्य करते हैं, वह उसकी पर्याये हैं। वह परिणमति रहती हैं। प्रकाशका प्रकाशरूप परिणमन होता है, लवणका लवणरूप-खारापनेरूप परिणमन होता है। ज्ञानका जाननेरूप परिणमन होता है। गुण स्वयं अपना कार्य करते रहते हैं।
मुमुक्षुः- विपरीतता होती है उसे कहीं-से भी दाखिल करनी है। खाली हो तो ही विपरीतताका प्रवेश हो सके न?
समाधानः- विपरीतता स्वयं स्वयंकी (है)। स्फटिक निर्मल है। बाहर निमित्त आया