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(आप दीक्षा लेकर गये तो) नदी कल-कल (आवाज करती है), उस बहाने नदी रो रही है। ऐसे सब श्लोक रचे हैं। उस क्षण भेदज्ञान, ज्ञायककी परिणतिकी उग्रता, सब मुनिओंको प्रतिक्षण वर्तता ही है। एक क्षण भूल जाय और दूसरी क्षणमें आये, ऐसा नहीं होता। उसी क्षण उन्हें ज्ञायककी परिणति भिन्न (वर्तती है) और उसी क्षण श्रुतका चिंतवन, भक्तिके श्लोक रचते हैं, सब करते हैं। एक क्षण भूल जाते हैं और दूसरी क्षण याद आता है, ऐसा नहीं है। उसी क्षण ज्ञायककी धारा भिन्न और ये प्रशस्त भाव आयें वह धारा भिन्न है। दोनों धारा साथमें वर्तती है।
मुमुक्षुः- और ज्ञायककी धारा तो अविच्छिन्न जो चलती है...
समाधानः- ज्ञायककी धारा अविच्छिन्न रहती है, वह तो अखण्डित है। रागकी धारा तो टूट जाती है। स्वरूपमें उपयोग जाय, निर्विकल्प दशा होती है, वहाँ वह राग तो टूट जाता है। दृष्टिमें वह अखण्ड रहता है। वह तो टूटती नहीं।
... कोई तत्त्वके, अध्यात्मके लिखे। कोई धवलके शास्त्र लिखे। अनेक जातके विकल्प बाहर आते हैं तब होते हैं।
मुमुक्षुः- वह सब ऐसे तो लिखते हैं, सब क्रम रहता होगा? क्योंकि तोडपत्र जो लिखे होते हैं, वह तो अपने पास रखते नहीं। तो उसमें क्रम संख्या देते होंगे? कैसे होगा?
समाधानः- क्रम तो कुछ करते होंगे। वे तो छोड देते हैैं। क्रम मिल जाय ऐसे लिखते हों न। श्लोककी संख्या आदि आता है। शास्त्रकी प्रीति है उन्हें। श्लोक संख्याका मेल आये ऐसा लिखते होंगे। श्रुतकी भक्ति है, इसलिये सुमेल पूर्वक लिखते हैं। कितने शास्त्र लिखे। ये तो इतने बाहर आये, इसके अलावा ऐसा कहा जाता है कि कितने ही लिखे हैं। अप्रमत्त-प्रमत्त दशामें झुलते-झुलते बाहर आये, वहाँ कलम चलती है। फिर लिखकर वनमें विचरते हैं। फिरसे लिखते हैं।
मुमुक्षुः- शास्त्र लिखकर जब चले जाते हैं, तो फिर ताडपत्री...
समाधानः- कुछ कलम करते हैं। कहीं रखते हों, गुफामें या कहीं भी रखते हों। फिर वापस आकर लिखते हों, कुछ भी करते हों।
मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टि ... पेश करे कि किसी भी प्रकारसे जीवको..
समाधानः- आत्माकी पहचान हो। अनेक प्रकारसे उसका विस्तार करते हैं। एक आत्मा-शुद्धात्माको पहचाननेके लिये। उसका मूल स्वरूप पहचाननेके लिये उसकी साधना कैसी होती है, उसकी साधकदशा कैसी होती है, उसका साध्य, उसे दृष्टि कहाँ रखनी, आदि अनेक प्रकारसे विस्तार करते हैं।
मुमुक्षुः- .. ज्यादा निद्रा नहीं होती। एकसाथ पौन सैकंडसे ज्यादा निद्रा नहीं