चैन न पडे। आत्मा कैसे समझमें आये? आत्मा कैसे पहचानमें आये? उसीकी धून, उसकी बार-बार लगन लगनी चाहिये। वस्तु क्या है? तत्त्व क्या है? आत्माका स्वभाव क्या है? उसका बारंबार चिंतवन, मनन उसे अंतरमें चलता रहे। अंतरमें खोजना, ग्रहण करना स्वयंको है। गुरुदेवने मार्ग तो बता दिया है। ग्रहण, स्वभावको कैसे ग्रहण करना? जो विभाव हो रहा है, उसमेंसे सूक्ष्म उपयोग करके अंतर आत्माको ग्रहण करना, वह पुरुषार्थ स्वयंको करना है।
मुमुक्षुः- .. उसका एकत्व मिथ्या है और ज्ञानस्वभाव अपना है, वही एकत्व यथार्थ है, इसप्रकार उसे बारंबार अपने संवेदनमें प्रयत्न करना पडता होगा? कैसे है?
समाधानः- बारंबार उसका प्रयत्न करे कि ये जो है वह यथार्थ नहीं है। यह एकत्वबुद्धि है विभावकी, वह यथार्थता नहीं है। वह तो मिथ्या है। क्योंकि वह पर विभाव अपना स्वभाव नहीं है, आकुलतारूप है। उसकी एकत्वबुद्धि टूटे कैसे? और स्वभावमें कैसे एकत्वता हो? स्वभावको ग्रहण करे तो स्वयंका एकत्व प्रगट हो। स्वरूपका एकत्व और परसे विभक्त कैसे हो, उसका बारंबार अभ्यास करे तो प्रगट हो।
(स्वभावसे) एकत्व और विभावसे विभक्तकी वार्ता जीवने सुनी नहीं है। गुरुदेवने वह सब स्वरूप बताया है। अंतरका स्वरूप भी गुरुदेवने प्रगट करके सबको बताया। (बाकी सब) श्रुत-सुननेमें आयी, अनुभवमें सब आया। यह वार्ता जीवने सुनी नहीं, उसका परिचय नहीं किया है, शास्त्रमें आता है। तो सुननेेमें तो गुरुदेवके प्रतापसे आ गयी। अन्दर विचारमें, अंतरमें ऊतारनी स्वयंको बाकी रहता है।
मुमुक्षुः- .. ज्ञानमें जिसे कीमत देनी चाहिये उसकी कीमत आती नहीं और जिसकी कीमत देने जैसी नहीं है, उसकी कीमत आती है, ऐसे कैसे गहरे विपरीत संस्कार डाले होंगे कि बारंबार ऐसा ख्याल आता है कि वासत्वमें तो कीमती चीज तो शुद्धात्मा है कि जिसमें ऐसे अनन्त गुण ऐसे अनन्त सामर्थ्यसे भरे हैं। क्षयोपशमज्ञानमें सब ख्यालमें आता है। फिर भी कीमत पैसा हो तो पैसेकी, दूसरी कोई चीज हो तो वहाँ कीमत दी जाती है और उसकी अधिकता हो जाती है। ऐसे कैसे गहरे संस्कार डाले हैं कि जिससे वह साफ नहीं हो रहे हैं?
समाधानः- अनादि कालके वह संस्कार विपरीत पडे हैं, इसलिये बारंबार उसकी स्फूरणा होती रहती है। और अन्दर विचारमें निर्णयमें ऐसा आये कि ये सब तो जूठा है, तुच्छ है, महिमावंत तो आत्मा है कि जो अनन्त गुणसे भरा अनुपम है, वह है। फिर भी अनादिसे जो परिणति है उसमें परिणति दौडती रहती है। उसमें उसकी एकत्वबुद्धि है। उसमें चला जाता है। परन्तु प्रयत्न करके, क्षण-क्षणमें पुरुषार्थ करके उससे स्वयं भिन्न हो, तो वह टूट जाय।