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मुमुक्षुः- पर्याय एक समयकी, मताजी! दूसरे समय तो उस पर्यायका व्यय हो जाता है। और वह गहरे संस्कार ऐसे कैसे डल जाते हैं कि इतना लंबा अभ्यास, विचार करते हैं, फिर भी कीमत वहाँ दे देते हैं और इसकी कीमत अभी भी नहीं आ रही है?
समाधानः- पर्याय पलट जाती है, परन्तु आत्मा तो नित्य है। आत्मा नित्य है तो वही संस्कार ऐसे ही स्फूरित होते रहते हैं। पर्याय तो क्षण-क्षणमें पलटती है। पर्याय अनित्य है, आत्मा नित्य है। उसमें जो विभावके संस्कार हैं, वह स्फूरित होते रहते हैं।
परन्तु ज्ञानस्वभाव ऐसा है कि वह ज्ञानस्वभाव तो स्वयंका ही है। वह कोई पराया नहीं है। यदि स्वयं प्रगट करे तो वह सहज है। पराया नहीं है कि बाहर लेने जाना पडे। क्षणमें प्रगट हो ऐसा है और स्वयंका है और सहज है, परन्तु उसमें वह दृष्टि नहीं रखता है। इसलिये अनादिका जो वह ऐसे ही स्फूरता रहता है।
मुमुक्षुः- एक बात कही न, निराश होने जैसा तो कुछ है नहीं। वह बात बहुत अच्छी लगती है।
समाधानः- निराश होने जैसा है ही नहीं। स्वयंका ही है, अपना स्वभाव है। अंतरमें-से ही प्रगट हो ऐसा है। स्वयं अंतरमें दृष्टि रखे तो जो उसमें-से ही, जो स्वभाव है उसमें-से ही स्वभाव प्रगट होता है।
गुरुदेव कहते थे, छोटीपीपर घिसते-घिसते उसमें-से प्रगट होता है। ऐसे स्वयंके स्वभावका अभ्यास करने-से उसमें-से ही स्वयं प्रगट होता है। उसीमें सब भरा है, उसीमें-से प्रगट होता है। ये संस्कार तो विभावके हैं। वह तो जब टूट जाते हैं, तब ऐसे टूट जाते हैं कि फिरसे उत्पन्न नहीं होते। जो अपना स्वभाव तो शाश्वत है, (इसलिये) जो प्रगट हुआ सो प्रगट हुआ, सादि अनन्त-अनन्त समाधि सुखमें (रहता है)। प्रगट हुआ सो प्रगट हुआ, फिर बदलता नहीं। और वह स्वभाव तो अनन्त काल पर्यंत परिणमता ही रहता है। वह संस्कार, वह स्वभाव तो ऐसा है। और ये संस्कार टूट जाय, नाश हो जाय तो फिर उसका उदभव नहीं होता। क्योंकि वह तो विभाव है। परन्तु वह तोडता नहीं है तबतक उत्पन्न होते रहते हैं। टूट जाय तो फिर उत्पन्न ही नहीं होते।
मुमुक्षुः- शुरूआतमें विश्वास नहीं आता है।
समाधानः- विश्वास नहीं आता है। अपनी ओर दृष्टि गयी तो सम्यग्दर्शन होता है। और उसे यदि मूलमें-से नाश हो तो फिरसे एकत्वबुद्धिके संस्कार पुनः उत्पन्न नहीं होते। भिन्न हुआ सो हुआ, फिर भिन्नकी ओर ही उसकी परिणति चली। फिर टूट