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गया सो टूट गया, नाश हो गया। फिरसे वह एकत्वबुद्धिके संस्कार उसे उत्पन्न ही नहीं होते। स्वभावकी एकत्वता प्रगट हुयी सो प्रगट हुयी, सादिअनन्त (रहती है)।
उसके बाद स्वरूपकी रमणता-वीतराग दशा अधूरी है, वह वीतराग दशा प्रगट हुयी तो रागका अंकुर उत्पन्न ही नहीं होता है। इस तरह वह संस्कार नाश हो जाते हैं। फिर अपने स्वभावमें-से स्वभाव ही प्रगट होता रहता है। क्योंकि स्वभाव है उसका नाश तो कभी होता नहीं।
अनन्त काल गया, इतने विभाव हुए, अनन्त काल पर्यंत विभाव ऐसे ही करता आया तो भी जो स्वभाव है उसका नाश नहीं हुआ है। और फिर वह जब प्रगट होता है, फिर अनन्त काल पर्यंत प्रगट होता ही रहता है। विभावका नाश हो, फिर उसका अंकुर उत्पन्न ही नहीं होता।
परन्तु वह स्वयं पुरुषार्थ करके उसे तोडता नहीं है, इसलिये वह संस्कार अनन्त कालके हैं, वह बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। यदि उसका नाश हो जाय तो फिर उत्पन्न ही नहीं होते। क्योंकि वह विभाव है। अपना नहीं है, निकल जाता है।
स्फटिक मणि स्वभावसे शुद्ध है, उसमें निर्मल पर्याय ही प्रगट होती है। जो लाल, पीले फूल हैं, वह तो अन्य निमित्तसे (प्रतिबिंब उठा है), भले परिणमन अपना है, परन्तु वह तो निकल जानेके बाद होते ही नहीं।
ऐसे चैतन्यमें मलिनता टूट जाय, फिर आती ही नहीं। लेकिन वह संस्कार स्वयं तोडता नहीं है, इसलिये उत्पन्न होते रहते हैं। स्वयं अनादि कालसे भिन्न ही है, तीनों काल। परन्तु उस भिन्नकी परिणति प्रगट हुयी और स्वानुभूतिकी दशाकी ओर मुडा, भेदज्ञानकी दशा प्रगट हुयी, और यदि उसे दृढ हो गयी एवं एकत्वबुद्धिके संस्कार नाश हुए, तो पुनः उत्पन्न ही नहीं होते। ऐसा वस्तुका (स्वरूप है)।
जो स्वभाव है वह तो सहज है। अंतरमें-से फिर स्वभाव स्वभावकी गतिमें ऐसे ही सहजरूप परिणमता है। और वह सहज है। (विभाव) दुष्कर है। लेकिन विभाव है वह सहज हो गया है और स्वभाव मानों दुष्कर हो, ऐसा उसे हो गया है। परन्तु स्वभाव तो सहज है, स्वयंका है। प्रगट होनेके बाद फिर उसमें-से सहज प्रगट होता ही रहता है। वह तो नाश हो जाता है।
मुमुक्षुः- एक बार प्रगट हुआ सो हुआ, फिर नाश नहीं होता।
समाधानः- हाँ, प्रगट हुआ सो हुआ, फिर नाश नहीं होता। उस ओर उसकी गति चली सो चली। विभाव नाश हो जाता है।
मुमुक्षुः- अर्थात विभावके संस्कारमें जोर है ही नहीं, स्वभावमें ही जोर है।
समाधानः- उसमें जोर ही नहीं है, स्वभावमें जोर है। अनन्त काल गया तो