९४ भी स्वभाव ज्योंका त्यों है। स्वभावके संस्कार तो गये ही नहीं, स्वभाव तो स्वभावरूप ही है। परन्तु विभावमें स्वयं जुडा है, इसलिये उसके संस्कार उत्पन्न होते रहते हैं। यदि उसे तोड दे तो फिर-से आते ही नहीं। तोड दे तो स्वभाव स्वभावरूप परिणमता है।
मुमुक्षुः- क्षयोपशमका अभाव हुआ तो क्षायिक ही होता है।
समाधानः- क्षायिक ही होता है। अपना है, कहीं लेने नहीं जाना है, इसलिये सुलभ है।
मुमुक्षुः- शास्त्रमें एक ओर ऐसी बात आये कि जिस प्रकारसे पुरुषार्थ कर अथवा तेरी पर्याय करनेमें तू स्वतंत्र है। और दूसरी ओर ऐसा आये कि प्रत्येक पर्याय उसके स्वकालमें होती है, दोनोंका मेल कैसे है? शास्त्रमें ऐसा आता है कि प्रत्येक पर्याय उसके स्वकालमें होती है।
समाधानः- उसके स्वकालमें होती है?
मुमुक्षुः- जी हाँ। और दूसरी ओर ऐसा आये कि तू स्वतंत्र है। किसी भी प्रकारकी पर्याय प्रगट करनी वह तेरे अधीन है यानी तू स्वतंत्र है। जैसा पुरुषार्थ तू कर, वैसा तू कर सकता है।
समाधानः- तेरी परिणति तेरे हाथकी बात है। जिस ओर तेरे पुरुषार्थकी गति है, उस ओर तेरी पर्याय परिणमेगी, और उस ओरका काल है, ऐसा समझ लेना। जैसी तेरे पुरुषार्थकी गति है, उस ओरका स्वकाल समझ लेना। स्वकालमें हो अर्थात स्वकालमें पुरुषार्थकी डोर साथमें होती है। जिस ओर तेरे वीर्यकी गति-पुरुषार्थकी गति, उस ओरका तेरा काल है। विभावकी ओर तेरी डोर है तो उस ओरका काल है। यदि तेरा पुरुषार्थ स्वभावकी ओर गया तो उस ओरका काल है।
मुमुक्षुः- स्वभावकी दृष्टि हो तो उस ओरका काल है। निर्मल पर्याय प्रगट होनेका काल है।
समाधानः- हाँ, वह काल है।
मुमुक्षुः- और पर्यायदृष्टि हो तो विभावपर्याय प्रगट होनेका काल है।
समाधानः- हाँ, विभावपर्याय प्रगट होनेका काल है।
मुमुक्षुः- उसे और जो पुरुषार्थ तू करना चाहे वह कर सकता है। उसमें इस तरह लेना?
समाधानः- हाँ, इस प्रकार लेना। उसमें पुरुषार्थका सम्बन्ध सबके साथ लेना है। पर्यायके साथ। उसकी पुरुषार्थकी दिशा किस ओर है (उस पर निर्भर करता है)। तू ज्ञायक-ओर गया तो ज्ञायक-ओरकी ही सब पर्याय प्रगट होगी। और तेरी दृष्टि पर्याय- ओर है तो उस-ओरकी सब पर्यायें प्रगट होगी।