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मुमुक्षुः- स्वतंत्ररूपसे तू कर्ता है, अर्थात कोई परद्रव्य करवाता नहीं है, ऐसे लेना?
समाधानः- परद्रव्य तुझे करवाता नहीं, तू स्वयं स्वतंत्र पर्याय कर रहा है। स्वतंत्रता (है)। स्वतंत्रता अर्थात कोई दूसरा द्रव्य तुझे नहीं करवाता है। क्योंकि तू अन्यका नहीं करता और तुजे कोई अन्य नहीं करता है। इस तरह तेरी स्वतंत्रता है। परन्तु पर्याय ऐसी स्वतंत्र नहीं है कि पर्याय ऐसी स्वतंत्र हो कि द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय परिणमे, ऐसी पर्याय होती नहीं। द्रव्यके आश्रयसे पर्याय परिणमती है। द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय स्वतंत्र परिणमे तो-तो वह स्वयं एक द्रव्य हो जाती है। इसलिये उसकी स्वतंत्रता उसके परिणमन तक सिमीत है कि वह पर्याय कैसे परिणमे। ऐसे स्वतंत्र है। लेकिन उसे द्रव्यका आश्रय तो होता है।
मुमुक्षुः- इस बातकी ही अभी तकरार चलती है।
समाधानः- .. इस तरह स्वयं परिणमन करके, स्वयं अपने द्रव्यमें-से स्वतंत्ररूपसे परिणमन करके कार्य लावे, इसलिये वह पर्याय स्वतंत्र (है)। परन्तु उसे द्रव्यका आश्रय है। द्रव्यके आश्रय बिनाकी पर्याय नहीं है।
मुमुक्षुः- उसमें तो दो बात आयी न कि, षटकारक, द्रव्यके षटकारक द्रव्यमें है, इसलिये पर्यायको और द्रव्यको अभेद करके षटकारक (कहे), कर्ता द्रव्य, करण द्रव्य सब द्रव्य। और उसे रखकर पर्यायके षटकारक लेने हों तो इस तरह लेना कि परिणमन उस समयका..
समाधानः- वह परिणमन द्रव्यके आश्रयसे है, उस तरह उसके षटकारक लेने। पर्याय स्वतंत्र है। उसका करण, संप्रदान, अपादान, सब। उसकी स्वतंत्रा भी द्रव्यके आश्रययुक्त है। अकेली पर्याय, बिना द्रव्याश्रय निराधार नहीं होती है।
मुमुक्षुः- स्पष्टीकरण करूँ कि पर्याय स्वतंत्रपने होती है, अर्थात कोई अन्य द्रव्य उसकी पर्यायको करता नहीं, उतना ही उसका अर्थ है।
समाधानः- हाँ, उतना अर्थ है।
मुमुक्षुः- और स्वतंत्रपने होती है अर्थात जैसी दृष्टि हो, स्वभावकी ओर दृष्टिका झुकाव हो तो उसकी पर्यायमें निर्मलता सहजरूपसे होती रहती है।
समाधानः- हाँ, वह सहज प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- स्वकालमें जो होनेवाली है वह होती रहती है।
समाधानः- हाँ, ज्ञानकी ज्ञानरूप, दर्शनकी दर्शनरूप, चारित्रकी चारित्ररूप, वह स्वतंत्र उसकी होती रहती है।
मुमुक्षुः- पर्यायदृष्टि हो तो इस तरह (होती है)।