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समाधानः- वह सब करते-करते हो गया। कमल और चरण, बीचमेें ऐसा ऊँचा, चित्र भी करते-करते करनेवाला अच्छा मिल गया, इसलिये सब ऐसा हो गया। विचार हो, लेकिन बाहरका अच्छा करनेवाला हो तो हो। अभी तो चित्रमें भी कितना संक्षेपमें किया है।
मुमुक्षुः- समवसरण स्तुतिका स्मरण आ गया। देव स्वयं ही रचना करे और स्वयंको ही आश्चर्य लगे कि ऐसी रचना कैसे हो गयी! तीर्थंकरका कोई अलग ही द्रव्य है, इसलिये उनके पुण्यसे सब सहजरूपसे सुचारुरूपसे बन जाता है।
समाधानः- गुरुदेवका प्रभावना योग ऐसे वर्तता ही रहता है। गुरुदेवने मार्ग बताया, भेदज्ञान प्रगट कर, स्वानुभूति कर। तू भिन्न, आत्मा भिन्न। तू चैतन्य है, तू ज्ञान, आनन्दादि अनन्त गुणोंसे भरपूर है। उसे भिन्न-न्यारा जान। ये सब कर्ताबुद्धि छोड और चैतन्यकी ओर दृष्टि कर। पुरुषार्थ करनेकी गुरुदेवने अनेक प्रकारसे (प्रेरणा दी है)। अनेक प्रकारसे स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, भेदज्ञान स्पष्ट सूक्ष्म कर-करके कोई अपूर्व रीतसे बताया है।
मुमुक्षुः- आपने कहा न, आत्मा शब्द बोलना भी पूज्य गुरुदेवने हम लोगोंको सीखाया है।
समाधानः- गुरुदेवने सीखाया है। कोई आत्मा जानता नहीं था। बाहर थोडी क्रिया की तो धर्म हो गया। ऐसा मानते थे। थोडी सामायिक करे, थोडा त्याग करे इसलिये धर्म हो गया। परन्तु अन्दर आत्मा है और आत्माके स्वभावमें ही धर्म है। धर्म कहीं बाहर नहीं है। स्वभावमें धर्म है और स्वभावमें-से ही प्रगट होता है। आत्मा शब्द बोलना गुरुदेवने सीखाया है।
दूसरे कितने ही लोग धर्म बाहरमें खोजते हैैं कि कहीं बाहरसे धर्म मिल जाय। गुरुदेवने मार्ग तो यथार्थ बता दिया, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। तू इस मार्ग पर जा। तू चैतन्यको पहचान, उसे ग्रहण कर, भेदज्ञान कर। वह मार्ग बताया, फिर पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। वह मार्ग बराबर बता दिया।
मुमुक्षुः- आपने कहा है कि वीतराग मार्गमें तो कदम-कदम पर पुरुषार्थकी जरूरत पडती है, उसके सिवा कहीं चले ऐसा नहीं है।
समाधानः- पुरुषार्थकी जरूरत पडती है।
मुमुक्षुः- अकेले पुरुषार्थसे होता है या गुरुदेवके प्रति भी थोडी-बहुत अर्पणता चाहिये।
समाधानः- पुरुषार्थ करे उसमें अर्पणता साथमें होती है। पुरुषार्थ कैसे करना, किसको पहचानकर करना? चैतन्यको पहचानकर। चैतन्यका स्वभाव कैसे प्रगट हो? औ