Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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गुरुदेवने कौन-सा मार्ग और कौन-सा स्वभाव कैसे बताया है, ऐसे गुरुकी अर्पणताके बिना, गुरुदेवने जो कहा है उस मार्ग पर पुरुषार्थ किये बिना होता नहीं। गुरुदेवने जो कहा है, उसमें अर्पणता साथमें आ जाती है।

मुमुक्षुः- ते तो प्रभुए आपीयो, वर्तूं चरणाधीन।

समाधानः- गुरुदेवने जितना दिया, चरणाधीन वर्तूं, दूसरा क्या कर सकते हैं? कुछ हो सके ऐसा नहीं है। "आ देहादि आजथी वर्तो प्रभु आधीन'। बस, प्रभुके आधीन यह देह वर्तो। देहादि सब। "दास, दास, हूँ दास छूँ, आप प्रभुनो दीन।' दूसरा कुछ कर सके ऐसा नहीं है। उन्होंने जो आत्मा दिया, उससे सब हिन है। इसलिये आत्माके आगे सब तुच्छ है। गुरुदेवने जो दिया उसके आगे। इसलिये चरणाधीन वर्तता हूँ।

गुरुदेवकी सातिशय वाणी, उनका अतिशयता युक्त ज्ञान, उनका आत्मा अतिशयता युक्त, वे इस पंचम कालमें पधारे वह कोई अहोभाग्यकी बात है।

मुमुक्षुः- .. स्वानुभूतिकी बहुत ही महिमा की है। और सब मुमुक्षुओंको स्वानुभूति कैसे है, ऐसी भावना है। गुरुदेवने तो बहुत समझाया है। परन्तु फिर भी जबतक कार्य नहीं हो जाता, तबतक अन्दर उलझन होती हो, इसलिये कुछ न कुछ मार्ग कैसे खोजना (ऐसा भाव आ जाता है)।

समाधानः- मार्ग तो गुरुदेवने स्पष्ट कर दिया है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। मार्ग एक ही है। गुरुदेवने कहा, शास्त्रमें एक ही बात आती है कि आत्माकी ओर दृष्टि कर, भेदज्ञान कर। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।' जो भी सिद्ध हुए, सब भेदविज्ञानसे हुए। जो नहीं हुए हैं, वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए। इसलिये तू भेदविज्ञान प्रगट कर।

ये विभाव और स्वभावका भेद कर कि यह स्वभाव है और यह विभाव है। स्वभाव पर दृष्टि कर। मैं अनादिअनन्त आत्मा चैतन्य हूँ। उस पर दृष्टिका स्थापित कर और उसका भेदज्ञान कर। मैं चैतन्य अखण्ड हूँ और यह जो विभाव है, वह मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव-विभावका भेदज्ञान करके स्वभावमें दृढता कर, उसमें लीनता कर। उसे ग्रहण कर और उसीकी परिणति प्रगट कर, तो उसीमें स्वानुभूतिक प्रगट होगी। मार्ग वह एक ही है, दूसरा मार्ग नहीं है।

मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ये विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। इसलिये उसीमें बारंबार लीनता, दृढता, सब उसीमें कर। तो उसके बारंबार अभ्याससे उसीमें स्वानुभूति प्रगट होती है, वही मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अंतरमें ही मार्ग रहा है।

मुमुक्षुः- इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे।

समाधानः- उसीमें प्रीति कर, उसमें संतुष्ट हो कि जितना यह ज्ञान है, उतना