Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

१०४ ही सत्यार्थ है। .. विकल्पमें संतोष न हो। जितना ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसीमें तू संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, उसीमेंं सब है। ज्ञान माने सिर्फ जानना ऐसा नहीं, परन्तु ज्ञानस्वरूप आत्मा है वही तू है। उसीमें। बस, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही चाहिये। उसीमें तृप्त हो, उसीमें-से सब प्रगट होगा।

उसमें ऐसा मत मान कि एक ज्ञानमें सब आ गया? ज्ञानमें ही सब आ जाता है। तू ज्ञायक ही है और उसमें अनन्त गुण हैं। इसलिये उसमें अनन्त सुख है। सब उसीमें-से प्रगट होगा। उसीमें तू तेरी प्रतीति दृढ कर, उसीमें तुझे अनुभूति होगी। जितना यह ज्ञान है, उतना ही कल्याण और वह परमार्थ सत्य है।

मुमुक्षुः- ऐसा समझानेके बावजूद कार्य न हो तो तत्त्वकी रुचिकी क्षति है या वैराग्यकी क्षति है?

समाधानः- वह तो परस्पर एकदूसरेको सम्बन्ध है। रुचिकी भी क्षति, वैराग्यकी भी क्षति, पुरुषार्थकी क्षति, सब क्षतियाँ उसमें होती है, तभी आगे नहीं बढ सकता। स्वयं स्वयंको यथार्थ ग्रहण नहीं करता है, उस ओर रुचिकी उग्रता नहीं करता है। रुचिके साथ वैराग्यकी भी क्षति है। सबकी क्षति है। परस्पर एकदूसरेको सम्बन्ध होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!