१०६ सब करना तो यही है। यह मेरा स्वरूप है, ऐसा बारंबार करना। छूट जाय तो भी विचार करना। ऐसे विचार करनेसे स्थिर न हो तो शास्त्रमें देखना, शास्त्र पढना। जहाँ चित्त स्थिर हो वहाँ लगाना।
मुमुक्षुः- कौन-से शास्त्रजीका अध्ययन करना चाहिये? कौन-से शास्त्रजी पढने चाहिये?
समाधानः- शास्त्र जो समझमें आये। मूल भेदज्ञान तो समयसार ही है। समयसार पढनेमें आवे, न समझमें आवे तो गुरुदेवके प्रवचन-समयसार पर हुए प्रवचन सुने। बाकी मूल शास्त्र है, नियमसार, प्रवचनसार, जो समझमें वह पढना। ऐसे अध्यात्म शास्त्र, जिसमें आत्माकी बात आती हो।
... महा उपकार और महा प्रताप है। गुरुदेवने सबको बताया है कि अंतर दृष्टि करनी। बाह्य दृष्टि तोडकर अन्दर जाना। अंतरमें ही मुक्तिका मार्ग है। स्वभावमें-से स्वभाव प्रगट होता है। विभाव तो आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न करके स्वभाव कैसे प्रगट हो? चैतन्यतत्त्व अनादिअनन्त एक अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि करके, मैं इन सबसे भिन्न हूँ। करना यही है। ध्येय वह है। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और अंतरमें शद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? इस ध्येयसे सब करना है। ध्येय एक ही-चैतन्यतत्त्व कैसे प्रगट हो? उसकी दृष्टि, उसका ज्ञान, उसमें लीनता कैसे हो? वह करना है। गुरुदेवने मार्ग सूक्ष्मतासे, चारों ओरसे स्पष्ट करके बताय है।
ये जन्म-मरण करते-करते,.. इस पंचमकालमें गुरुदेव पधारे, उनका जन्म हुआ, वह महाभाग्यकी बात है कि सबको ऐसी अपूर्व वाणी मिली। ऐसी वाणी मिलनी मुश्किल है। चैतन्य कोई अपूर्व है, यह उनकी वाणी बताती थी कि आत्मा कोई अलग है। उन्हें अंतरमें-से ऐसी वाणी आती थी। वाणीका प्रभाव ऐसा था। उनकी वाणी कोई अतिशयतापूर्ण, उनका ज्ञान अतिशयतापूर्ण, उनका आत्मा वैसा था। इसलिये आत्मा अनुपम है और वह कोई अपूर्व है, उसीमें अपूर्व सुख और अपूर्व आनन्द है। वह प्रगट करने जैसा है।
सब लोग कहाँ पडे थे। गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी, आत्मामें। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। बाकी दृष्टि तो उन्होंने दी कि करना अंतरमें है, सब बताया, दिशा बतायी। ... अतिशय है, इस भूमिमें गुरुदेव विचरे हैं, इसलिये...
मुमुक्षुः- तपोभूमि है यह।
समाधानः- तपोभूमि है। गुरुदेवने कितने साल यहाँ रहे हैं। परिवर्तन किया उसके बादसे। फिर विहार करे वह अलग। बाकी हमेशा तो यहीं रहे न। पहले शुरूआतमें तो विहार भी कम करते थे। पीछले वषामें हर साल विहार करते थे। परन्तु हमेशा तो यहीं रहते। इस पंचमकालमें...