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मुमुक्षुः- ... बहुत जीव यहाँ-से गये, लेकिन किसीको विकल्प नहीं है। स्वर्गमें गये होंगे। तो किसीको ऐसा विकल्प नहीं है कि यहाँ पर भगवानकी वार्ता करें, बताये। लेकिन अब हमारे मनमें ऐसा कई बार विकल्प उठता है कि गुरुदेव गये...
समाधानः- स्वयंको तो प्रभावनाका विकल्प था, बाकी यहाँका विकल्प आना मुश्किल, यहाँके पुण्य हो तो विकल्प आये। .. भरतक्षेत्रमें थे और यहाँ-से गये। इस पंचमकालमें ऐसा बनना बहुत मुश्किल हो गया है। जहाँ तीर्थंकर भगवान विचरे, वहाँ देवोंके समूह आता है। यहाँ सब मुश्किल हो गया है।
मुमुक्षुः- मुमुक्षुजीवको मार्गदर्शन दिया गया और वह परिणतिमें कैसे उपकारी होता है? परमार्थमें वह कैसे उपकारी होता है, यह समझाईये।
समाधानः- देव-गुरु-शास्त्र, भगवान सर्वोत्कृष्ट (हैं)। भगवानने सर्वोत्कृष्ट दशा प्रगट की है। जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा अपना आत्मा है। भगवानका जो स्वरूप है, जो भगवानने प्रगट किया, वैसा ही अपनेमें शक्तिरूप है। भगवानको पहचाननेसे स्वयंको पहचानता है। इसलिये भगवानका जो स्वरूप है, वैसा अपना स्वरूप है।
भगवान पर बहुमान आनेसे चैतन्यका स्वरूप पहचानमें आता है। और गुरु तो मार्ग बताते हैं कि तेरा चैतन्य स्वरूप है। तू ही स्वयं चैतन्य अनन्त गुणसे भरपूर है। वे मार्ग बताते हैं कि तू स्वानुभूति प्रगट कर, भेदज्ञान प्रगट कर। पूरा मार्ग गुरु बताते हैं। और शास्त्रमें उसका वर्णन आता है। परन्तु शास्त्रको सूलझानेवाले गुरु हैं।
देव-गुरु-शास्त्रके प्रति जिसे भक्ति होती है, (उसमें) स्वयंको ध्येय आत्माका होता है कि जैसा मेरा आत्मा, वैसा भगवानका। भगवानकी पहचान करवानेवाले गुरु हैं। इसलिये गुरु पर जिसे बहुमान आये, वह अपने आत्माको पहचाने। देवको पहचाने, वह अपने आत्माको पहचाने। और श्रुतका जो स्वरूप है, वह श्रुत तो गुरु बताते हैं। गुरु मार्ग बताते हैं।
इसलिये देव-गुरु-शास्त्र, उसकी परिणतिमें उसके शुभभावमें उनकी महिमा आये बिना नहीं रहती। उनकी महिमा जिसके हृदयमें होती है, वह स्वयंको पहचानता है। और स्वयंको पहचानता है, वह देव-गुरु-शास्त्रको पहचानता है। ऐसा देव-गुरु-शास्त्रका चैतन्यके साथ सम्बन्ध है। और श्रुतकी परिणति तो स्वयं आगे बढता है, वहाँ श्रुतकी परिणति तो साथमें होती ही है। श्रेणी चढे तो उसमें द्रव्य, गुण, पर्याय आदिका विचार उसे होता है। अबुद्धिपूर्वक होते हैं। परन्तु श्रुतका चिंतवन तो साथमें (होता ही है)। मैं चैतन्य कौन? प्रथमसे ही चैतन्य कौन? मेरा स्वरूप क्या? वह सब समझनेके लिये श्रुतकी परिणति साथमें होती है। परन्तु उसका यथार्थ मार्ग दर्शानेवाले गुरु है। श्रुतकी परिणति तो जीवको अन्दर विचार उसमें साथमें होती ही है।