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इसलिये देव, गुरु, शास्त्र उसके शुभ परिणाममें बीचमें आये बिना रहते ही नहीं। और देव-गुरु-शास्त्र आत्माको दर्शाते हैं। और जो आत्माको पहचाने, वह देव-गुरु- शास्त्रको पहचाने। देव-गुरु-शास्त्रको पहचाने वह आत्माको पहचानता है। ऐसा सम्बन्ध ही है। अतः यथार्थ ज्ञायकको पहचाने उसमें देव-गुरु-शास्त्र साथमेंं होते ही हैं। और साधना प्रगट हो, उसमें उपयोग बाहर आये तो उसे शुभ परिणाममें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। और अंतरमें जाय तो शुद्धात्मा (है), शुद्धात्मा पर दृष्टि होती है। शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट होती है, और जहाँ न्यूनता है, उस शुभ भावनामें उसे देव-गुरु-शास्त्र साथमें होते ही हैैं। इसलिये साधनाके साथ देव-गुरु-शास्त्रका सम्बन्ध साथमें रहता ही है।
प्रथम जिज्ञासाकी भूमिकासे देव-गुरु-शास्त्रका सम्बन्ध जिज्ञासुको शुरूआतसे होता ही है। और जब पूर्ण हो, तबतक देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प उसे शुभ भावनामें होते हैं। उसे शुद्धात्मा... भेदज्ञानके साथ, शुभभावके साथ देव-गुरु-शास्त्रका ऐसा सम्बन्ध होता ही है। और देव-गुरु-शास्त्र उसे इस तरह उपकारभूत हैं। देव-गुरु-शास्त्र उसके शुभ परिणाममें आते हैं। पुरुषार्थकी प्रेरणा मिलती है। देव-गुरु-शास्त्रकी ओर लक्ष्य जानेसे अनेक जातके विचार (आते हैं)। गुरुने कैसी साधना की? देव कैसे होते हैं? शास्त्रमें क्या कहते हैं? उसे पुरुषार्थकी प्रेरणा मिलती है। करता है स्वयं, परन्तु उसमें प्रेरणा मिलती है।
साधनाके साथ देव-गुरु-शास्त्रका सम्बन्ध, ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है। आखिर तक, जब श्रेणि चढता है, वहाँ अबुद्धिपूर्वक द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार उसे होते हैं। श्रुतका चिंतवन आखिर तक होता है। परन्तु करना है निर्विकल्प उपयोग, शुद्धात्माकी स्वानुभूति। उसकी दृष्टि वहाँ होती है। वह शुभभाव, स्वयंका-चैतन्यका-शुद्धात्मका-स्वरूप नहीं है, परन्तु वह बीचमें आये बिना नहीं रहता। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- साधककी भूमिकामें तो आपने कहा ऐसा मेल हो रहा है। उसे तो दृष्टि यथार्थ प्रगट हुयी है, दृष्टिने स्वरूपका कब्जा लिया है इसलिये शुभराग आता है, तो उसे हेयरूप जानता है। परन्तु जिज्ञासुकी भूमिकामें जो आपने बात कही कि जिज्ञासुकी भूमिकामें दोनों साथमें रहते हैं, हमें तो ऐसा लगता है कि देव-गुरु-शास्त्रको साथमें रखने जाते हैं तो अनादिसे व्यवहारका पक्ष तो है, व्यवहारकी रुचि तो है। उसमें व्यवहारकी रुचि हो जानेकी संभावना है? नहीं होती?
समाधानः- उसे देव-गुरु-शास्त्र रुचिवालेको बीचमें आये बिना रहता ही नहीं। मुझे मेरा स्वरूप कैसे पहचानमें आये? मुझे गुरु क्या मार्ग दर्शाते हैं? गुरुने क्या कहा है? ऐसे विचार उसे आये बिना नहीं रहते। उसे व्यवहारका पक्ष उसमें नहीं होता। परन्तु उसे भावना ऐसी रहती है, उसे भक्ति आये बिना रहती ही नहीं। गुरु ऐसा