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कहते हैं कि, तू तेरे शुद्धात्माको पहचान। तू सर्व शुभभावसे भिन्न तेरा शुद्धात्मा है, ऐसा गुरु कहते हैं। परन्तु जिज्ञासुको भी शुभभाव आये बिना नहीं रहते। उसमें कोई व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। उसे व्यवहारका पक्ष ऐसे नहीं हो जाता। उससे लाभ माने, उसमें सर्वस्व माने, उससे मोक्ष माने तो उसमें व्यवहारपक्ष होता है। बाकी शुभभाव आये उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। ऐसी उसमें श्रद्धा नहीं हो जाती। शुभभावना आये तो ऐसी श्रद्धा नहीं हो जाती कि इससे मुझे लाभ होता है या मोक्ष होता है। ऐसी श्रद्धा जिज्ञासुको साथमें हो जाय, ऐसा नहीं होता।
उसे बुद्धिपूर्वक ऐसा निर्णय होता है कि गुरुने कहा है कि तेरा शुद्धात्मा विकल्प रहित निर्विकल्प है। शुभभाव भी तेरा स्वरूप नहीं है। गुरुने कहा। और उसे विचारसे ऐसा बैठा है। इसलिये उसमें श्रद्धा नहीं हो जाती है कि शुभभाव आया इसलिये उसमें व्यवहारका पक्ष हो गया और श्रद्धा ऐसी हो गयी। ऐसा नहीं होता।
व्यवहारका पक्ष किसे हो जाता है? कि ऐसी श्रद्धा है साथमें कि इससे मुझे लाभ होता है। देव-गुरु-शास्त्र मुझे कर देते हैैं, वे करे ऐसा हो, मेरे पुुरुषार्थसे नहीं होता, ऐसी जिसे मान्यता है, उसे व्यवहारका पक्ष होता है। उसकी श्रद्धा ऐसी हो कि मैं मेरे-से करुँगा तब होगा। गुरु मुझे उपकारभूत हैं, गुरुने सब दिया है। ऐसी शुभभावना आये उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। उसकी श्रद्धा तो भिन्न रहती है। यथार्थ श्रद्धाकी अलग बात है, जो सहज भेदज्ञान और श्रद्धा (होती है वह)। परन्तु ये उसे जो बुद्धिपूर्वक श्रद्धा है, उसमें श्रद्धाकी भूल नहीं होती। गुरुकी भक्ति करे उसमें श्रद्धाकी भूल नहीं होती है, उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। भगवानकी भक्ति करे, गुरुकी करे, शास्त्रकी करे तो उसमें जिज्ञासुको पक्ष नहीं हो जाता। उसमें सर्वस्वता माने तो होता है।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण आपने किया। मुमुक्षुः- शुभभावको हेय समझता है और आये बिना रहे नहीं, ऐसा भी समझता है। दोनों बात होती है।
समाधानः- ऐसा समझता है, दोनों समझता है। उसे श्रद्धा है कि शुभभाव तो हेय है। तो भी वह जिज्ञासुको भी आये बिना नहीं रहता। शुभभाव आये इसलिये श्रद्धाकी भूल हो जाय, ऐसा कुछ नहीं होता। शुभभावमें वह भक्ति करे, इसलिये उसे व्यवहारका पक्ष हो गया, ऐसा नहीं है। उसकी श्रद्धा तो अंतरमें वह स्वयं जानता है कि गुरुने ऐसा कहा है कि शुद्धात्मा तेरा भिन्न है, शुभभाव तेरा स्वरूप नहीं है और स्वयंने भी नक्की किया है। इसलिये उसमें श्रद्धाकी भूल नहीं होती।
मुमुक्षुः- महिमा करे तब तो ऐसे करे कि आप ही मेरे सर्वस्व हो।