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समाधानः- हाँ, ऐसे महिमा करे। आप सर्वस्व हो, आपने सब दिया है। आप यहाँ पधारे, आपने मार्ग बताया तो हम जागृत हुए हैं। आपने ही हमें पुरुषार्थ करना सीखाया है, ऐसा बोले। लेकिन वह समझता है कि, करना तो मुझे है। परन्तु गुरुका परम उपकार है, ऐसा समझता है कि यह दिशा बदली हो तो गुरुने बदली है। उपकारबुद्धिमें, उसके शुभभावमें ऐसा आता ही है।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया। जिज्ञासुकी भूमिकामें, उस भूमिकामें भी शुभभाव साथमें होता है, वह आये बिना नहीं रहता। यह स्पष्टीकरण बहुत सुन्दर आया। किसीको भय लगे कि उसमें पक्ष आकर अटक तो नहीं जायेंगे न?
समाधानः- व्यवहारका पक्ष होकर अटक नहीं जाता। स्वयं श्रद्धामें समझता है, उसमें अटकता नहीं।
मुमुक्षुः- माताजी! आज टेपमें ३८वीं गाथा चली थी। उसमें ऐसा आया था, अप्रतिहत भावकी बात उसमें थी। और गुरुदेव भी कभी-कभार कहते थे कि बहिनश्रीके जातिस्मरणज्ञानमें क्षायिक जोडणीकी बात आयी थी। तो कृपा करके क्षायिक जोडणीका स्वरूप क्या है अथवा वह किसे प्राप्त होता है, उस विषयमें कुछ स्पष्ट करें।
समाधानः- जोडणी क्षायिक तो जो अप्रतिहत धारा होती है, उसमें प्रगट होता है। वह तो बहुत आगे गया हो उसे। जिसमें शुद्धात्माकी साधनाकी पर्याय विशेष- विशेष अप्रतिहत धारासे जुडती है, उसे जोडणी क्षायिक कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- बराबर स्पष्ट नहीं हुआ, माताजी! फिरसे ज्यादा स्पष्ट करिये तो...। वर्तमानमें इस कालमें तो क्षयोपशम समकित होता है। अमृतचन्द्राचार्यदेवका पूरा ध्वनि ऐसा था कि क्षयोपशम समकित गिरेगा ही नहीं और हम क्षायिक लेकर ही रहेंगे तो गुरुदेव अप्रतिहतभावकी बात भी करते थे और साथ-साथ आपकी यह बात भी लेते थे। तो उसके साथ उसका क्या मेल है? कैसे है? यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- क्षयोपशम भी ऐसा होता है कि अप्रतिहत होता है कि जो गिरता नहीं, ऐसा। और उसमें उसकी सब पर्याय अप्रतिहतभावसे, शुद्धात्म स्वरूपकी पर्यायें अप्रतिहत धारासे प्रगट होती है। ऐसी उसकी धारा ही प्रगट होती है, जोडणी क्षायिकमें।
मुमुक्षुः- धर्म अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट करनेके लिये एक तो भेदविज्ञानकी पद्धतिकी बात शास्त्रमें बहुत सुन्दर आती है। दूसरी ओर ज्ञायककी प्रतीत करनेकी बात भी समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थोंमें आती है। तो उन दोनोंमें एक ही बात है अथवा कोई अंतर है? अथवा उन दोनोंका मेल कैसे है, यह समझानेकी कृपा कीजिये।
समाधानः- दोनों एक ही बात है। भेदज्ञान, ज्ञायककी प्रतीति करनी वह अलग नहीं है। ज्ञायककी प्रतीति करनी कि मैं ज्ञायक हूँ। अनादिअनन्त शाश्वत चैतन्यतत्त्व हूँ।