Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 207.

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ट्रेक-२०७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- एक समयकी ज्ञानकी पर्यायको कोई बार शास्त्रमें ज्ञेय कहनेमें आती है, कोई बार पर्याय है इसलिये हेय है, ऐसा भी वर्णन आता है। कोई बार प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय कहनेमें आती है। एक पर्याय सम्बन्धि बहुत प्रकार शास्त्रमें आते हैं। तो उसमें भेदविज्ञानकी ज्योति प्रगट करनेके लिये कौन-सी बात मुख्य करनी? हेय है, ऐसे मुख्य करना? ज्ञेय है, ऐसे मुख्य करना? अथवा उपादेय है, ऐसे मुख्य करना?

समाधानः- दृष्टिकी अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है। क्योंकि जो चैतन्य स्वभाव अनादिअनन्त अखण्ड ज्ञान परिपूर्ण स्वभाव भरा है। उसके दर्शनगुण, चारित्र आदि अनन्त गुण जो हैं, सहज दर्शन, सहज ज्ञान, सहज चारित्र, सहज आनन्द स्वभावसे भरा है। परिपूर्ण है। वह परिपूर्ण है और अखण्ड पर दृष्टि करनेमें अधूरी जो पर्यायें हैं, वह अधूरी पर्याय आत्माका मूल स्वरूप नहीं है। इसलिये उसे उस दृष्टिसे हेय कहनेमें आता है। परिपूर्ण स्वभावकी अपेक्षासे, दृष्टिकी अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है।

उसे जानने योग्य कहनेमें आता है। परन्तु जो अधूरी पर्याय, साधनाकी पर्याय जो है, वह बीचमें आये बिना नहीं रहती। इसलिये वह ज्ञानमें जानने योग्य है।

और वह आदरने योग्य है। क्योंकि अधूरी पर्याय (है)। दर्शन और ज्ञान दोनों प्रगट हो तो चारित्र कहीं परिपूर्ण साथमें हो नहीं जाता। इसलिये उसे साधना करनी बाकी रहती है, स्वरूपमें लीनता बाकी रहती है। इसलिये वह पर्याय उसे आदरणीय भी होती है। ज्ञानमें उसे आदरणीय कहते हैं। दृष्टिकी अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है।

वह जैसे है वैसे निश्चय-व्यवहारकी सन्धि समझे तो उसकी साधना आगे बढती है। दृष्टिमें एक ज्ञायकको मुख्य रखे। परिपूर्ण ज्ञान.. उसमें पूर्ण-अपूर्ण पर्यायोंको गौण करनेमें आती है कि पूर्ण-अपूर्ण पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ। मैं तो अखण्ड ज्ञायक हूँ। केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट हो तो भी वह पर्याय है। मैं तो एक द्रव्य हूँ। परन्तु साधनामें बीचमें सम्यग्दर्शनसे लेकर जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है, वह सब साधनामें आती है। इसलिये उस अपेक्षासे उसे उपादेय (कहनेमें आता है)। केवलज्ञानकी पर्याय भी उसे साधना करनेसे प्रगट होती है। इसलिये उसकी अपेक्षासे उपादेय है, परन्तु दृष्किी