११४ अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय कहा?
समाधानः- प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय है। उसे पुरुषार्थ करना रहता है। दृष्टि और ज्ञान प्रगट हुए। लीनता अभी कम है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी, परन्तु स्वानुभूति क्षण-क्षणमें उसकी वृद्धि हो और स्वानुभूतिरूप ही स्वयं हो जाय, जैसा आत्मा है वैसा शाश्वत स्वानुभूतिरूप हो जाय, ऐसी दशा प्रगट नहीं होश्रती है, इसलिये उस अपेक्षासे आदरणीय है।
मुनि छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अन्दर जाय और बाहर आते हैं। तो भी उन्हें अधूरी पर्याय है। इसलिये उनकी साधनाकी पर्याय बारंबार चलती ही रहती है। मैं प्रमत्त या अप्रमत्त नहीं हूँ, ऐसी दृष्टि होनेके बावजूद वे साधनाकी पर्यायमें झुलते हैं। ऐसा करते-करते श्रेणी चढते हैं।
मैं ज्ञायक सो ज्ञायक हूँ। तो भी साधनाकी पर्यायें बीचमें होती है। अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें अप्रमत्त दशामें, पुनः प्रमत्त दशामें आते-आते श्रेणी लगाकर केवलज्ञान प्रगट होता है। साधनामें वह आये बिना नहीं रहता। परिणतिकी डोर स्वभावकी ओर, ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ, स्वानुभूतिकी ओर (जाता है)। भेदज्ञानकी धाराको उग्र करे, दृष्टिका जोर वृद्धिगत करता जाता है और स्वानुभूतिकी दशा प्रगट करता जाता है। साधनामेंं वह होता है। दृष्टि सबको हेय मानती है, दृष्टि सबको गौण करती है।
मुमुक्षुः- उसमें ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ, माने क्या?
समाधानः- ज्ञान अर्थात पुरुषार्थकी डोर... ज्ञायककी ओर जो परिणति गयी है, वह परिणति स्वयंको अपनी ओर खींचती है। ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ, ज्ञायककी ओर जो ज्ञान गया, ज्ञायककी ओर जो ज्ञान परिणमा वह ज्ञान स्वयं अपनी ओर अपनी परिणतिको खींचता है। जो विभावकी ओर परिणति जाती है, उसे स्वभावकी खींचता हुआ स्वयं साधनाको वृद्धिगत करता जाता है, भेदज्ञानकी धारा उग्र करता जाता है।
मुमुक्षुः- अत्यंत सुन्दर स्पष्टीकरण है। ऐसा मेल करना भी बहुत मुश्किल पडता है। कभी इस ओर खींच जाता है, कभी पर्याय-ओर खींच जाता है। द्रव्यकी ओर एकान्त खींच जाता है तो पर्याय (छूट जाती है)।
समाधानः- सब छोड देना है, एक ही द्रव्य है, ऐसा हो जाय। अथवा तो पर्याय पर चला जाता है।
मुमुक्षुः- यह स्पष्टीकरण तो अत्यंत सुन्दर है और आत्मधर्ममें मुमुक्षुओंको बहुत मार्गदर्शन मिले ऐसा सुन्दर है।
समाधानः- दृष्टि प्रगट हो गयी, फिर कुछ करना ही नहीं रहता, ऐसा नहीं