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है। दृष्टि होनेके बाद सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान प्रगट हुआ, परन्तु अभी लीनता प्रगट करनी बाकी रहती है। भेदज्ञानकी धाराको उग्र करके दृष्टिका बल वृद्धिगत करता जाता है। अपनी परिणतिको अपनी ओर एकदम झुकाता जाता है। विभावकी ओर जा रही परिणतिको स्वभावकी ओर खींचता जाता है। वह हेय मानता है, फिर भी पुरुषार्थकी डोर चालू है। मैं तो अखण्ड हूँ तो भी विभावकी पर्याय जो हो रही है और स्वभावपर्याय कम है, उसे जानता है और पुरुषार्थकी डोरको अपनी ओर खींचता जाता है।
मुमुक्षुः- साधककी ऐसी विचक्षणता भी असाधारण सूक्ष्म है।
समाधानः- दोनों ऐसे ही हैं। कल कहा, जिज्ञासुको उसमें व्यवहाराक पक्ष नहीं आ जाता? ऐसे नहीं आ जाता। स्वयंने नक्की किया हो कि बस, इससे धर्म नहीं है। ऐसा निश्चय किया हो तो उस कार्यमें जुडे तो उसमें व्यवहारका पक्ष आ नहीं जाता। कोई प्रयोजनके कारण ऐसे व्यवहारके कायामें जुडनेका प्रसंग बने। कोई भक्तिमें स्वयंको उल्लास आवे और जुडना हो, इसलिये उसमें कोई व्यवहारका पक्ष नहीं आ जाता। जिसे भेदज्ञान प्रगट हुआ, उन्हें ऐसे प्रसंग बने। कोई आचार्य धवल शास्त्र लिखते हैं और कोई अध्यात्मके लिखते हैं, तो उसमें उन्हें कोई पक्ष हो जाता है? कोई मुनि भक्तिके शास्त्र लिखे, पद्मनंदि आचार्य, इसलिये उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। भेदज्ञानकी धारा चलती है।
वैसे, जिज्ञासुने नक्की किया है कि ये सब विभावसे भिन्न मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। भले ही बुद्धिसे नक्की किया है तो भी किसीको स्वयं ऐसी परिणति हो और भक्तिके भाव आये, उसमें जुडे और कोई ऐसे प्रयोजनमें पडे और उसमें जुडे तो उसमें भक्ति करनेसे व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण। जिज्ञासुकी नक्की करनेमें कचास है, वह तो अपना कारण है। ऐसे परिणाम आते हैं और उसके पक्षमें खींच जाता है, ऐसा नहीं है।
समाधानः- भक्तिके कायामें भक्तिके भाव आये तो उसमें वह जुडे तो वह कोई पक्ष नहीं है। उसमें यदि नक्की करे कि इसमें सर्वस्व है और इसीमें-से मुझे लाभ होगा, ऐसा माने तो उसे पक्ष है। परन्तु मेरा स्वभाव तो सब शुभभावसे मेरा स्वभाव तो भिन्न है। परन्तु उसे शुभभावकी भक्तिकी परिणति ऐसी कोई आये और कुछ प्रयोजन पडे तो उसमें जुडे, इसलिये उसे पक्ष नहीं हो जाता।
मुमुक्षुः- कल आपको प्रश्न पूछा उसके बाद..
समाधानः- बहुत लोगोंको ऐसा हो जाय कि ये व्यवहारमें ज्यादा जुडता है, इसलिये इसे व्यवहारका पक्ष हो गया है। ऐसा नहीं है।