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मुमुक्षुः- ऐसे शास्त्र-भाषामें हम लोग ऐसा कहें कि प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय है। परन्तु आपने जो स्पष्टीकरण जिस प्रकारसे किया वह सुन्दर है। भाषामें तो सब बोल लेते हैं। प्रगट करनेकी अपेक्षासे पर्याय उपादेय है। परन्तु साधनामें साधकको ऐसे परिणाम आते ही हैं।
समाधानः- उसे साथमें होते ही हैं। उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर स्थापित दृष्टि ज्ञायकसे भिन्न नहीं पड जाती है। मैं ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायकका अस्तित्व जो उसने ग्रहण किया, विभावसे न्यारा, पूर्ण-अपूर्ण पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, गुणके भेद भी मेरेमें नहीं है, वह जो दृष्टि ज्ञायक पर स्थापित हुयी, वह दृष्टि तो हटती नहीं। परन्तु उसे ज्ञानमें है कि ये विभाव खडा है। अभी पर्याय अधूरी है। स्वभावका वेदन आंशिक है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होकर, ज्ञायककी सविकल्प धारामें आंशिक शान्तिका वेदन होता है, परन्तु अभी पूर्ण नहीं है, अपूर्ण है। अभी ये विभावकी, विकल्पकी जाल चलती है, उसे जानता है। उसमें-से अपनी परिणतिको स्वयं भिन्न करता हुआ, पुरुषार्थ करता हुआ, दृष्टिके साथ उसकी पुरुषार्थकी डोर साथ ही साथ रहती है।
वह विभावमें एकत्व होता नहीं। और जितनी उसकी उग्रता हो, उस अनुसार करता जाता है। ऐसा करते-करते ही उसकी भूमिका पलटती है। चौथी भूमिकामें हो, उसमेंसे पाँचवी, छठवीं, सातवीं भूमिकामें वह निज स्वभावकी डोरको खींचता हुआ (आगे बढता है)। ऐसी उसकी विरक्ति, ज्ञानकी उग्रता, ज्ञाताकी-ज्ञाताधाराकी तीव्रता और विरक्ती बढती जाय, इसलिये उसके स्वभावकी एकदम निर्मलता होती जाती है। स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है, वह साथमें ही रहती है। वह ऐसा विचार नहीं करता है कि प्रगटकी अपेक्षासे ऐसा है। परन्तु उसकी पुरुषार्थकी डोर चालू ही है। दृष्टि चालू है और पुरुषार्थकी डोर भी साथमें चालू ही है।
मुमुक्षुः- ... ऐसी कोई विशेषता होगी कि एक ही विषयको चारों ओरसे स्पष्ट करनेकी ऐसी ही कोई... बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण आपने आज किया।
समाधानः- जिसे सादकदशा प्रगट होती है, वह तो अपने मार्ग पर चला जाता है। कोई बाहर कहे या न कहे, परन्तु साधककी दशामें उसकी ऐसी ही दशा होती है। गुरुदेवको तो कोई अपूर्व वाणीका योग था तो एकदम स्पष्ट कर-करके सबको निश्चय और व्यवहार, ज्ञान, दर्शन आदि सबको स्पष्ट करके बता दिया है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवश्रीके प्रथम दर्शन संप्रदायमें आपको कहाँ हुए थे?
समाधानः- पहले वढवाणमें ही हुए। नारणभाईने दीक्षा ली थी, तब दीक्षाका प्रसंग था। पहले वढवाणमें, बादमें वींछिया, सब जगह।
मुमुक्षुः- वींछिया आप पधारे थे?