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लिये जगदीशभाईके पुत्र जीगिशभाईकी ओर-से एक लाख रूपयेकी घोषणा की जाती है। आगे भी बढ सकते हैं। एक लाख रूपया।
समाधानः- सबकी भावना गुरुदेवके प्रति... चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।
समाधानः- .. स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। गुरुदेवने अंतरमें चैतन्यरत्न प्रगट करके उन्हें अंतरमें श्रुतकी लब्धि प्रगट हुयी। सबको एकदम जैसे मूसलाधार बरसात बरसे उतना दिया है। अंतरमें करना स्वयंको है। गुरुदेवको तो हम क्या करें और क्या न करें। जितना करें उतना कम है। उनकी पूजना, वंदना क्या करें? गुरुदेवने बहुत दिया है।
गुरुदेवने एक ही मार्ग बताय है कि तू आत्माको भिन्न जान। ज्ञायक आत्माको पहचान। एक ही करना है। सबको एक ही ध्येय रखना है। मार्ग एक ही है। उसके लिये विचार, वांचन आदि हो, परन्तु मार्ग एक ही है। ध्येय तो एक ही रखना है कि चैतन्यद्रव्यको तू पहचान। चैतन्यद्रव्य किस स्वरूप है? उसके गुण, उसकी पर्याय उसे तू पहचान और एक शाश्वत चैतन्यद्रव्य पर दृष्टि कर, उसीमें दृष्टि स्थापित कर। इस विभाव जो दृष्टि अनादिकी दृष्टि है, उस परसे उठाकर दृष्टिको द्रव्य पर लगा दे। जो शाश्वत अस्तित्व है, उस पर दृष्टि स्थापित कर और उसीमें-से सब प्रगट होता है। स्वभावमें-से स्वभावपर्याय प्रगट होती है। विभाव पर दृष्टि करने-से उसमें-से प्रगट नहीं होता।
दृष्टि बाहर तो भी बाहरसे जिसमें नहीं है, उसमें-से नहीं आता है, जिसमें है उसमें-से प्रगट होता है। इसलिये चैतन्य पर दृष्टि कर तो उसीमें-से सब प्रगट होता है। उस पर दृष्टि, ज्ञान, लीनता सब उसीमें करना है। आत्मा स्वभावसे निर्मल है। उसकी निर्मलताका उसे ख्याल नहीं है। निर्मलताकी यथार्थ प्रतीति करके ये जो विभाव