१५० हो रहा है उसमें-से पुरुषार्थको पलटकर अपनी ओर पुरुषार्थ करना वही जीवनका कर्तव्य है, करना वह है। उसके लिये देव-गुरु-शास्त्रने जो किया है, उसे हृदयमें रखनी, उनकी महिमा हृदयमें रखनी और एक आत्मा कैसे पहचाना जाय, बस, ज्ञायक आत्मामें ही सब भरा है। निवृत्तस्वरूप आत्मामें ही सब भरा है। उसके आश्रयमें-से ही सब प्रगट होता है। एक चैतन्यका आलम्बन करने-से उसके आलम्बनमें-से सब प्रगट होता है। उसमें-से स्वानुभूति, निर्विकल्प दशा सब उसमें-से प्रगट होता है। ऐसी भेदज्ञानकी धारा प्रगट करके क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। चैतन्य हूँ, उसीकी महिमा, उसीका रटन बारंबार उसका अभ्यासक करना चाहिये। करना यही है।
मुमुक्षुः- पूरे जीवनमें सब जीवोंको यही एक मात्र करना है?
समाधानः- करनेका ध्येय तो एक ही है। करनेका एक है। कुछ भिन्न-भिन्न नहीं करना है। कहीं पर्याय भिन्न करनी, यह भिन्न करना, वह भिन्न करना ऐसा नहीं है। ध्येय एक ही है। एक आत्म स्वभाव पर दृष्टि करे तो उसमें-से अनन्त गुणकी जो पर्याय है वह प्रगट होती है। उसे भिन्न-भिन्न करने नहीं जाना पडता अथवा उसे ऐसी आकुलता करनेकी आवश्यकता नहीं है। एक चैतन्यको पहचाने तो उसमें-से अनन्त गुण-पर्याय प्रगट होती है। एक चैतन्य पर दृष्टि स्थापित करे तो उसमें अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द जो अनन्त गुण हैं, वह सब उसीमें-से प्रगट होते हैं। करना एक है। उसके लिये यह सब श्रुतका चिंतवन, मनन, लगन, महिमा आदि सब एक के लिये करना है।
एकको जाना उसने सब जाना। एक ज्ञात नहीं हुआ तो (उसने कुछ नहीं जाना)। इसलिये एक चैतन्य कैसे पहचानमें आये, वह करना है। भगवानको जाने वह अपने आत्माको जाने। भगवान कैसे हैं? जैसा भगवानका आत्मा वैसा ही अपना आत्मा है। इसलिये आत्माको पहचानना। एक ही करना है। उसके लिये उसका अभ्यास अनन्त कालसे किया नहीं है इसलिये उसे दुर्लभ हो गया है। बारंबार उसीका अभ्यास करना जैसा है। दिन-रात उसीकी खटक, उसकी लीनता वही करने जैसा है। उसीका विचार, उसीका चिंतवन, वह सब करने जैसा है। करना एक ही है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवका उपकार तो है ही, वह अनन्त उपकार है। परन्तु साथ-साथ विशेष मार्गदर्शनके लिये हमें आपकी आवश्यकता है। अतः आप भी हमें अनन्त उपकार कर रहे हैं और वह अनन्त उपकार हम भी इच्छते हैं कि पर्याय-पर्यायमें वह उपकार बढता जाय और हमें आत्म-प्राप्तिकी भावना हो, ऐसे आशीर्वाद हम पर सदा बरसते रहें, ऐसी भावना है।
समाधानः- सम्यग्दर्शनका मार्ग गुरुदेवने बताया। पूर्वमें जीवने बहुत किया परन्तु