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समाधानः- ... गुरुदेव शाश्वत विराजे, सबको विरह क्यों हुआ? कोई कुछ कर नहीं सकता। इस भरतक्षेत्रमें गुरुदेवका विरह हो गया। कोई किसीको कर नहीं सकता।
मुमुक्षुः- बहन! करुणा होवे तो करुणाके कारण कार्य बन जाता है।
समाधानः- क्षेत्रसे दूर हो गये। ऐसा क्यों होवे? भावना, हृदयमें गुरुदेवको रखनेसे गुरुदेव भविष्यमें मिल जाते हैं। भावना हृदयमें रखो कि ऐसे गुरुदेव जो भाविके तीर्थंकर हैं, ऐसी तीर्थंकर जैसी वाणी बरसायी, ऐसे गुरुदेवको हृदयमें विराजमान करने-से भविष्यमें उनका योग बनता है।
मुमुक्षुः- माताजी! भविष्यमें तो मिलेंगे ही मिलेंगे, हम तो इस भवमें भी आपके साथमें दर्शन करेंगे। यह पक्की बात है। हमारी भावना ऐसी है।
मुमुक्षुः- आज मैंने देखे गणधरदेव, आज मैंने सुन लिये गणधरदेव। बोलो भगवती मातनो जय हो!
समाधानः- सब अंतरमें ही करनेका है। बाहरसे दृष्टि उठानी, वह एक ही करना है। शास्त्रोंमें अनेक-अनेक रीतसे बात आती है, करनेका एक ही है। गुरुदेवने जो कहा वह एक ही करना है। बारंबार अंतर दृष्टि करनी। बस! अंतरमें ज्ञायकको पहचानना। उसका लक्षण पहचानना कि मैं चैतन्य कौन? और यह विभावलक्षण, चैतन्यलक्षण उसे भिन्न करके, अपने लक्षणसे स्वयंको पहचानकर और अन्दर स्थिर होना, उसकी दृढता करनी, उसकी प्रतीत करनी, वह करना है, एक ही करना है।
वांचन, विचार आदि सब करना, लगन लगानी, महिमा करनी, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। अन्दर चैतन्यकी महिमाके ध्येयसे सब करना है, एक ही करना है। क्षण- क्षणमें बस आत्मा.. आत्मा.. अंतर आत्माकी लगन लगानी, वही करना है।
अनन्त काल गया जीवने यह अपूर्व सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है, बाकी सबकुछ प्राप्त हो चूका है, दूसरा कुछ नया नहीं है। अनन्त बार देवलोकमें गया, बाहरकी सब वस्तु प्राप्त हो चूकी है, कुछ नया नहीं है। एक नया चैतन्यका स्वरूप वह अपूर्व है, वह प्राप्त नहीं हुआ है। वह प्राप्त कैसे हो, वह करने जैसा है।
शास्त्रमें आता है, एक जिनेन्द्र भगवान और एक सम्यग्दर्शन, दो जीवने प्राप्त नहीं