Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

१५६

समाधानः- परको मत जानो ऐसा नहीं, परका राग करके परमें लक्ष्य मत करो।

मुमुक्षुः- तो परको जाननेसे फायदा क्या है?

समाधानः- फायदा कुछ नहीं है। राग करने-से क्या फायदा है? ज्ञानका स्वभाव है तो स्वयं जाननेमें आता है।

मुमुक्षुः- जाननेमें आ जाता है, जानता तो नहीं है न?

समाधानः- जानता है। राग आत्माका स्वभाव नहीं है। एकत्वबुद्धि तोडनी। ज्ञेय और ज्ञान एक है, ऐसी एकत्वबुद्धि तोडनी। मैं ज्ञायक ही हूँ। ज्ञायककी दिशा पलट देना। जाननेका स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। जाननेका स्वभावका नाश नहीं होता। जाननेका स्वभावन नाश कर दूँ। तो जानन स्वभाव नाश नहीं होता। एकत्वबुद्धि तोड देना, उसका राग तोडना। दृष्टि पर ओर जाती है, उसको पलट देना।

मुमुक्षुः- जबतक पर जाननेमें आता है, तो दृष्टि अन्दर कैसे जायगी?

समाधानः- पर जाननेमें आता है (इसलिये) दृष्टि नहीं जायगी ऐसा नहीं होता। दृष्टि अपनेमें जाती है। रोकता नहीं है, ज्ञेय अपनेको रोकता नहीं है। स्वयं दृष्टि पलट देना, तो दृष्टि तो पलट जाती है। उपयोग तो बाहर जाता है। अपनी ओर उपयोग लाना अपने हाथकी बात है।

ज्ञानका स्वभाव ऐसा है, जाननेमें अनन्त है, जाननेके स्वभावकी मर्यादा नहीं होती है। जो जाननेवाला है उसका स्वभाव अनन्त है। उसकी मर्यादा नहीं होती कि इतना जाने, इतना जाने। जाननेका स्वभाव है वह स्वको जानता है, परको भी जानता है। उसकी महिमा अनन्त है कि जो अनन्तको जानता है। ऐसे महिमा अनन्त है। परन्तु उसका राग नहीं करना, ज्ञेयके साथ एकत्वबुद्धि नहीं करना। अपने स्व-ओर दृष्टि करके और स्व-ओर उपयोग करना। स्वयं सहज जाननेमें आवे उसमें नुकसान नहीं होता। सहज जाननेमें आ जाता है, केवलज्ञानीको सहज जाननेमें आ जाता है। तो उसको नुकसान नहीं होता। वह तो आत्माका स्वभाव है।

मुमुक्षुः- केवली भगवानको तो आत्मा जाननेमें आता है। ... कहाँ परको जानते हैं?

समाधानः- नहीं, केवलज्ञानी भगवान परको जानते हैं। अपनेको जानते हैं और ज्ञेयको भी जानते हैं। उसमें राग नहीं होता, उस ओर उपयोग नहीं होता। सहज जाननेमें आ जाता है। ज्ञानका परिणमन अपनेको जानता है, परको भी जानता है। ज्ञेयको जानता है।

मुमुक्षुः- हमारा प्रयोजन तो अपनेको जाननेका है, हमारा प्रयोजन परको जाननेका तो है नहीं।

समाधानः- प्रयोजन भले नहीं है, परन्तु स्वयं जाननेका स्वभाव है, उसका नाश