Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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नहीं होता। प्रयोजनकी क्या बात है? प्रयोजन अपनेको जाने उसमें स्वयं जाननेका आ जाता है। उसके स्वभावका नाश नहीं होता। जो छद्मस्थ है उसका उपयोग एक तरफ जाता है। स्वको जानता है तो पर-ओर उपयोग नहीं जाता है। परन्तु उसका जाननेका नाश नहीं होता है। अपनी स्वानुभूतिमें उपयोग जाता है (तो) परको जाननेमें लक्ष्य नहीं होता। जाननेका नाश नहीं होता है। नहीं जानता है ऐसा नहीं, जाने तो उसमें क्या दोष आता है? उसके स्वभावका नाश नहीं होता है।

मुमुक्षुः- अंतिम भूल कौन-सी है जिससे अनुभव नहीं हो पाता है?

समाधानः- एकत्वबुद्धि होती है। पर मैं हूँ, मैं पररूप हो जाता हूँ और पर मेरे रूप हो जाता है। और विभाव है, आकुलता जो विकल्पकी जाल है, उस रूप मैं हो जाता हूँ, विकल्प मेरेमें आ जाता है। ऐसी एकत्वबुद्धि हो गयी है, इसलिये अनुभव नहीं होता है। भेदज्ञान करने-से अनुभूति होती है। एकत्वबुद्धि है।

मैं चैतन्य हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ। उस पर दृष्टि करनेसे, उसका ज्ञान करनेसे, उसमें लीनता करनेसे स्वानुभूति होती है। भेदज्ञानका अभाव होनेसे स्वानुभूति नहीं होती है।

मुमुक्षुः- अनुभव लक्षण तो दिखता है परन्तु लक्ष्य क्यों नहीं दिखता?

समाधानः- लक्षण कहाँ देखनेमें (आता है)? यथार्थ लक्षण देखनेमें आवे तो लक्ष्य देखनेमें आता है। यथार्थ लक्षण कहाँ देखनेमें आता है?

मुमुक्षुः- उसका उपाय क्या है देखनेका?

समाधानः- अपनी जिज्ञासा, महिमा, अपनी लगनी लगाना और बाहरसे महिमा तोडकर स्वभावकी महिमा, उसकी लगन उसका उपयोग सूक्ष्म करके आत्मा स्वभावको ग्रहण करना, वह उसका उपाय है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते थे, मैं ज्ञाता, मैं ज्ञान, मैं ज्ञेय। ... ये क्या है?

समाधानः- ज्ञायक ही मैं, ज्ञाता मैं, ज्ञेय मैं। ज्ञेय यानी ज्ञानकी पर्याय जो परिणमती है, वह ज्ञेय। उसका मतलब पर वस्तु नहीं है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय अपनेमें परिणमन होता है। पररूप नहीं परिणमता है। पर परमें है, आप अपनेमें है। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय सब अपनेमें है। इसलिये परद्रव्य नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। आत्मा अनन्त कालसे परिभ्रमण करते-करते जो प्रत्यभिज्ञानका कारण आत्मा है तो यदि परको नहीं जानता हो तो, परको कोई जानता है वह कैसे जाननेमें आ जाता है? आत्मा पररूप परिणमता नहीं है। ज्ञान तो अपना स्वभाव ही है।

जो अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है, ऐसा ज्ञानस्वभाव अनादिअनन्त अनन्त महिमासे भरपूर है। उसमें मर्यादा नहीं होती है। सबको जानता है। एकत्वबुद्धि तोडे, ज्ञेयके साथ